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‘विश्व की सबसे बड़ी’ स्वास्थ्य योजना की असलियत

क्या .तब ‘विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना’ की ज्यादातर राशि निजी क्षेत्र और कुछ बीमा कंपनियों के हवाले नहीं हो जायेगी?

New Delhi, Feb 04: हम भारतीय स्वभाव से ही अतिशयोक्ति-पसंद लोग हैं। यूरोप और कई अन्य देशों के दौरों में मुझे बार-बार महसूस हुआ कि हम लोग बोलने में ज्यादातर देेशों के लोगों को पछाड़ सकते हैं। अपने नेताओं को ही देख लीजिये, चाहे चुनाव मैदान हो या संसदीय बहसें हों। अपने टीवी चैनलों को ही देख लीजिये-किसी महत्वपूर्ण विषय पर बहस हो तो हमारे टीवी प्रोफेशनल्स उसे बहस के बजाय ‘महाबहस’ कहना पसंद करते हैं। उन्हीं की तर्ज पर नेतागण अपनी रैलियों को ‘महारैली’ कहने लगे हैं। बिल्कुल उसी अंदाज में बीते गुरूवार को हमारी सरकार ने दावा किया कि सालाना बज़ट में जिस नयी स्वास्थ्य योजना का ऐलान हुआ है, वह ‘विश्व की सबसे बड़ी योजना’ है। मेरा इरादा अपनी सरकार के दावे को चुनौती देना नहीं है। वैसे भी भारत आबादी के हिसाब से दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश है। अगर हमारे यहां किसी योजना के तहत 10 करोड़ परिवारों के लगभग 50 करोड़ लोगों को लाभार्थी बनाया जा सका तो निस्संदेह वह विश्व की सबसे बड़ी योजनाओं में एक मानी जा सकती है। पर किसी योजना की विशालता, महानता या उसके लक्ष्य का मूल्यांकन इस बात से नहीं हो सकता कि उसकी उद्घोषणा के समय उसके उद्घोषक क्या-क्या दावे कर रहे हैं, अपितु उसका मूल्यांकन इस आधार पर होता है कि उसके वास्तविक लाभार्थी कितने रहे, कितनी तत्परता और सामर्थ्य के साथ उसका क्रियान्वयन हुआ! इस रोशनी में देखें तो सरकार द्वारा घोषित ‘विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना’ के लक्ष्य, उसे लागू करने की पद्धति और उसके लिये जरूरी निवेश-तंत्र की मौजूदा असलियत पर अभी से गंभीर सवाल उठ रहे हैं।

केंद्रीय बजट में इसे बीमा-आधारित ऐसी योजना के रूप में निरूपित किया गया है, जिसे नेशनल हेल्थ प्रोटेक्शन स्कीम(NHPS) के तहत शुरू किया जा रहा है। प्रावधानों के हिसाब से इस योजना पर 50 लाख करोड़ रूपये का खर्च बैठेगा। पर बजट में इस तरह की योजनाओं के लिये महज 2000 करोड़ का प्रावधान किया गया है। इस साल के बजट में देश के संपूर्ण स्वास्थ्य के लिये कुल धनराशि 56 226 करोड़ निर्धारित की गई है। सरकार ने कहीं इस बात का विस्तार और व्यौरेवार विवरण नहीं दिया है कि 50 लाख करोड़ की बड़ी धनराशि का इंतजाम वह कैसे करेगी! यह बात अपनी जगह सही है कि बीमा-आधारित इस योजना के लिये केंद्र सरकार राज्यों से भी सहयोग ले सकती है। पर अभी इस बारे में ठोस रणनीति नहीं तय की गई है। डेढ़ लाख ‘वेलनेस सेंटर’ खोलने की बात की जा रही है। पर उसके लिये भी ठोस प्रारूप सामने नहीं आया है कि जिस देश के बड़ी आबादी के ज्यादातर प्रदेशों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, जिला अस्पताल और रेफरल अस्पताल भारी दुर्दशा के शिकार हैं, जहां प्रति व्यक्ति-डाक्टर का औसत दुनिया के अनेक विकासशील देशों के मुकाबले कम है और जहां स्वास्थ्य क्षेत्र के निजीकरण ने आम आदमी के सामने गहरा संकट पैदा कर दिया है, वहां सरकार अचानक इतनी बड़ी संख्या में ‘वेलनेस सेंटर’ कैसे खोलेगी और कैसे चलायेगी! अगर ये वेलनेस सेंटर सिर्फ निजी क्षेत्र में खोले जाने हैं तो यह कैसे आम लोगों की जरूरतों को पूरी करेंगे? क्या .तब ‘विश्व की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना’ की ज्यादातर राशि निजी क्षेत्र और कुछ बीमा कंपनियों के हवाले नहीं हो जायेगी?

दुनिया में बीमा-आधारित स्वास्थ्य योजनाओं का थोड़ा-बहुत लाभ अगर कहीं मिलता है, तो वह आमतौर पर विकसित देशों में। किसी अर्द्धविकसित या विकासशील देश, और वह भी भारत जैसे बड़ी आबादी के देश में बीमा-आधारित स्वास्थ्य योजना का सफल माडल मेरी नजर में नहीं आया है। यहां तक कि विकसित और अमीर अमेरिका का बीमा-आधारित माडल भी दुनिया के सफल जन-स्वास्थ्य माडल में शुमार नहीं होता। इससे जुड़ा दूसरा सवाल है कि एक ऐसा बड़ा देश जो जन-स्वास्थ्य पर लंबे समय से अपने जीडीपी का महज 1.3 फीसदी खर्च करता आ रहा हो, वह सिर्फ कुछ बीमा-आधारित योजनाओं से सभी गरीब लोगों को स्वास्थ्य-लाभ कैसे मुहैय्या करा सकता है? बीमा के तहत इलाज में अनेक रोग शुमार तक नहीं होते। विकसित देशों, उदाहरण के लिये कनाडा जहां युनिर्वसल हेल्थकेयर लागू है, जन स्वास्थ्य पर जीडीपी का 10.2 फीसदी खर्च होता है। अमेरिका में 14फीसदी से कुछ ऊपर, स्वीट्जरलैंड 11.1 फीसदी, नार्वे 8.9 फीसदी, नीदरलैंड 11.1फीसदी और स्वीडेन 11.फीसदी। इनके मुकाबले उभरती अर्थव्यवस्था वाले अपेक्षाकृत ताकतवर ‘ब्रिक्स’ देशों यानी ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका में जन स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च भारत में होता है।

सार्क देशों में अफगानिस्तान, मालदीव और नेपाल भी भारत के मुकाबले अपने-अपने जीडीपी का ज्यादा प्रतिशत जनस्वास्थ्य पर खर्च कर रहे हैं। दुनिया के ज्यादातर जन-स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत जैसे बड़ी आबादी और विकासशील देश में बीमा-आधारित योजना लोगों को वास्तविक अर्थों में स्वास्थ्य नहीं मुहैय्या करा सकती है। इसके लिये भारत के रणनीकारों-योजनाकारों को अपने प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों-रेफरल अस्पतालों, जिला अस्पतालों, मेडिकल कालेजों और एम्स जैसे बड़े संस्थानों का सुदृढ़ीकरण करना होगा। स्वास्थ्य क्षेत्र में पब्लिक निवेश के साथ आधारभूत संरचना, डाक्टरों-नर्सों का नेटवर्क बढ़ाना होगा। जन स्वास्थ्य पर भारत को अपने जीडीपी में 1.3 फीसदी के खर्च को बढ़ाकर कम से कम 6 से 7 फीसदी करना होगा। पर हमारी सरकार और योजनाकार पता नहीं क्यों बीमा-आधारित ‘निजी-सरकारी सहकार’ के पिटे-पिटाये फार्मूले पर हजारों करोड़ की राशि बर्बाद करने पर तुले हुए हैं! इसका फायदा आशा और लक्ष्य के विपरीत न केवल कम लोगों तक पहुंचेगा, अपितु इस धनराशि की बंदरबांट भी आसान रहेगी।

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश उर्मिल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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