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अगर सारे बजरंगी पकौड़ा तलने लगे तो आपकी पार्टी का क्या होगा अध्यक्षजी

पहले मोदी जी और बाद में अध्यक्षजी ने जिस तरह पकौड़े की ब्रांडिंग कर दी है, उससे लगता है कि उसका स्टॉल भी खोला जाये तो बिक्री अच्छी हो जायेगी.

New Delhi, Feb 07: सुना है, अध्यक्षजी ने कल संसद में कहा है कि बेरोजगार रहने से बेहतर है पकौड़ा बेचना. नीति वाक्य के तौर पर इस वाक्य से कतई असहमत नहीं हुआ जा सकता. खास तौर पर मेरे जैसा आदमी जो खाना पकाने, खाने और खिलाने से बेहतर किसी और काम को मानता ही नहीं है. और उसमें भी पकौड़ा… क्या बात है. यह अलग बात है कि आजकल पकौड़े को सेहत के लिए नुकसानदेह मान लिया गया है. बीपी-सुगर जैसी बीमारियों ने आम लोगों को भी इस लजीज व्यंजन के स्वाद से वंचित कर लिया है. पर जो लोग स्वस्थ हैं, उन्हें तो पकौड़ा खाना ही चाहिए. चाहे तो जैतून के तेल में तलवा लें या सफोला गोल्ड में. इसलिए मैं अध्यक्षजी के संसद में दिये गये बयान से असहमत नहीं हूं. मैंने खुद तय किया हुआ है कि जिस रोज बेरोजगार होऊंगा, सबसे पहले चाय-पकौड़े का ठेला लगाऊंगा. और इस ‘अच्छे दिन’ वाले जमाने में कब यह अवसर मिल जाये, यह कहा नहीं जा सकता.

क्योंकि नौकरियां बढ़ने के बदले घट रही है, सरकारी भी और प्राइवेट भी. ऑटोमोशन का जमाना है. और फिर पत्रकारिता में तो नौकरियां घटाने के लिए ऑटोमोशन की जरूरत भी नहीं है. अब तो हिज्जे सही करने वाले चार लड़के मिल जायें, इतने में ही अखबार निकल जाता है. सरकार भी रिलीज मेल कर देती है और कंपनियां भी. नो-निगेटिव अखबार के लिए और चाहिए क्या… ऐसे में मुमकिन है कि मुझे भी जल्द चाय-पकौड़े का ठेला लगाने का मौका मिल जाये. वैसे भी नौकरियों में अब कुछ रखा नहीं है. कमाना है और टैक्स भरना है. पकौड़े के ठेले में कम से कम वह झमेला नहीं है. अभी ठेले वाले जीएसटी से भी बचे हैं. मेरे दफ्तर के सामने ऐसे कई ठेले लगते हैं. कोई लिट्टी बेचता है तो कोई चाइनीज, कोई चाट तो, कोई चिकन, हां कोई पकौड़े वाला नहीं है.

पटना में रोल और चाइनीज का अधिक क्रेज है. शायद इसलिए. मगर पहले मोदी जी और बाद में अध्यक्षजी ने जिस तरह पकौड़े की ब्रांडिंग कर दी है, उससे लगता है कि उसका स्टॉल भी खोला जाये तो बिक्री अच्छी हो जायेगी. बहरहाल, मेरी चिंता दूसरी है. मैं परेशान इस बात से हूं कि अगर बजरंगियों, करणी सेना वालों, हिंदू सेना वालों, गौरक्षकों और ऐसे ही तमाम राष्ट्रवादी सैनिकों ने अध्यक्षजी की बात को सीरियसली ले लिया तो क्या होगा. आज तो जो युवक बेरोजगार हैं, नौकरी में अप्लाई करते हैं मगर रिजल्ट नहीं आता. रिजल्ट आता है मगर ज्वाइनिंग नहीं होती. चार-चार साल तक वेकेंसी नहीं निकलती, इंजीनियरिंग करते हैं मगर आठ हजार की नौकरी ऑफर होती है. एमबीए करते हैं और एलआईसी का एजेंट बनवा पड़ता है. उनके लिए राष्ट्रवाद एक अच्छा कैरियर है.

जिओ का रिचार्ज करके सोशल मीडिया पर राष्ट्र के बहाने हिंदुत्व की रक्षा करने का बोध बेरोजगारी की कुंठा से बाहर निकालता है. पद्मावत फिल्म के खिलाफ अभियान चलाकर कई ऐसे युवक देश में सम्मान के पात्र बन गये. और वह शंभू लाल रेगर तो राष्ट्र नायक बन गया. उसके लिए लोगों ने चंदा किया, उसकी आभा इतनी बढ़ी कि प्रवीण तोगड़िया जैसे लोग खुद को खारिज किया हुआ महसूस करने लगे. पिछले दिन मैंने पढ़ा कि बजरंग दल में भी वेकेंसी निकली है. मैं अब तक यही समझता था कि बेरोजगारी से बेहतर है किसी राष्ट्रवादी सेना को ज्वाइन करना. इसमें आगे बढ़ने के बेहतर रास्ते हैं. मगर इस राष्ट्र के दो बड़े नायकों ने पूरे देश के युवाओं को कंफ्यूजन में डाल दिया है. अब वे कह रहे हैं. बेरोजगार रहने से अच्छा है पकौड़े बेचना. मैं सोचता हूं अगर राष्ट्रवादी युवकों ने इस सुझाव पर अमल कर दिया तो राष्ट्रवाद का क्या होगा. और फिर अध्यक्षजी की पार्टी का क्या होगा, जिसकी जीत इन्हीं राष्ट्रवादी सैनिकों की स्वयंसेवा से होती है.

(वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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