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हर मोड़ पर धोखे हों तो आप क्या करेंगे ?

कमोवेश हर मंत्रालय में जिस तरह दावे-वादे किये जा रहे हैं उसने नया संकट तो पैदा किया ही है कि क्या सिर्फ बड़बोले भाव से सरकार चल रही है।

New Delhi, Feb 14 : त्रिपुरा प्रेस क्लब में एक सवाल के जवाब में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा कि मोदी सरकार के दौर में सबसे ज्यादा आतंकी मारे गये । तो पत्रकार क्या करता । चुप रह गया । जबकि दिसंबर 1989 में मौजूदा सीएम महबूबा मुफ्ती की बहन रुबिया सईद के अपहरण के बाद से जिस तरह घाटी में आतंकी घटनायें बढीं, उसका सच तो ये है कि उसके बाद से घाटी में 23364 आतंकी मारे गये । यानी आतंक की जो तस्वीर मोदी सरकार से पहले हर सरकार ने देखी उसमें क्या पहली बार मोदी सरकार सिर्फ दावे और वादे में ही अटकी हुई है । क्योंकि बीजेपी अध्यक्ष का कहना है आजादी के बाद जिसने आतंकी नहीं मारे गये उससे ज्यादा मोदी सरकार के दौर में मारे गये। पर सच तो ये है कि मोदी सरकार के दौर में 564 आतंकी मारे गये । मनमोहन सिंह के आखिरी चार साल में 628 आतंकी मारे गये थे । जबकि मनमोहन सिंह के 10 बरस के दौर में 3894 आतंकी मारे गये । वाजपेयी सरकार के दौर [ 1998-2004 ] में सबसे ज्यादा 10547 आतंकी मारे गये । नरसिंह राव के दौर में 6804 आतंकी मारे गये । और तो और देवगौडा के 11 महीने के दौर में 1177 आतंकी मारे गये । यानी तीस बरस की ये फेरहिस्त देखने से साफ है कि मौजूदा सत्ता के दौर मे सबसे कम आतंकी मारे गया । सबसे कम नागरिक मारे गये । और सुरक्षाकर्मी भी सबसे कम शहीद हुये है । लेकिन पहले दिन से ही जिस रुख के साथ कश्मीर को लेकर जो अंतर्विरोध उभरा है उसने ही मोदी सरकार के लिये संकट खडा किया है । एक तरफ मोदी लालकिले से कश्मीरियो को गले लगाने का जिक्र करते है तो दूसरी तरफ सेनाअध्यक्ष गोली का जिक्र करते हैं। पर सवाल सिर्फ आतंकवाद भर का नहीं है । कमोवेश हर मंत्रालय में जिस तरह दावे-वादे किये जा रहे हैं उसने नया संकट तो पैदा किया ही है कि क्या सिर्फ बड़बोले भाव से सरकार चल रही है। और सूचना तंत्र मोदी सरकार के गुण गाण में जुटा है तो फिर कुछ भी कहा जा सकता है ।

कौशल विकास योजना
मसलन स्किल इंडिया य़ा कहे प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना। मोदी लगातार कहते है कि इसके जरीये देश में रोजगार कोई समस्या नहीं रही । और अगर सरकारी साईट पर भी परखने चले जाइयेगा तो आंखें ये देख कर चूंधिया जायेंगी कि कमोवेश हर क्षेत्र में लोगो को सिखाया जा रहा है और रोजगार पैदा हो रहा है। मसलन खेती से लेकर फूड इंडस्ट्री। इलेक्ट्रोनिक्स से लेकर जेवेलरी स्कील । पर ये सच कितना अधूरा है । ये प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना की साइट पर ही दर्ज है । सरकार की ही साइट बताती है है कि एक फरवरी तक 29,73,335 लोगों को जोडा गया । पर रोजगार मिला 5,39,943 लोगों को । यानी स्कील इंडिया से जुडेने के बाद जिन्हे नौकरी मिली उनकी तादाद 20 फीसदी भी नहीं है। और बाकायदा राज्यो के आसरे भी कौशल विकास योजना से मिलने वाले रोजगार को परखें तो तमिलनाडु में 2,20,819 लोगों में सबसे ज्यादा 72,186 लोगो को रोजगार मिला । दूसरे नंबर पर यूपी में 4,61,788 लोगों में से 66,849 लोगों को रोजगार मिला । यानी बीते साढे तीन बरस का कच्चा चिट्टा अगर राज्यो के आसरे परखा जाये तो 1200 दिनो में किस राज्य में कितना रोजगार स्किल इंडिया से मिल गया वह भी हैरान करने वाला ही है । कि अगर टॉप टेन राज्यो को देखें तो तमिलनाडु [-72,186] , यूपी [66,849], मध्यप्रदेश [44,836], राजा्सथान [43,986] , तेलगाना [43,161], आंध्रप्रेदश [33,390], हरियाणा [31,211],पं बंगाल [ 30.772], पंजाब [ 25,705 ], बिहार [22,033] । यानी कुल 5 लाख 39 हजार में से 4 लाख 14 हजार नौकरी सिर्फ दस राज्यो में । बाकि 19 राज्य और 6 केन्द्र शासित राज्यों में कुल एक लाख 20 हजार नौकरियां ही स्किल इंडिया के जरिये मिली । यानी पूरे देश के लिये देशभर में हर बरस 1,34,985 नौकरी निकल पायी । और हर दिन 369 नौकरी । और इतनी कम नौकरिया ही संभवत वजह रही कि इस मंत्रालय को संभाल रहे राजीव प्रताप रुड़ी को सितंबर 2017 में मंत्रिमंडल विस्तार में हटा दिया गया । और धर्मेन्द्र प्रधान को अतिरिक्त प्रभार इस मंत्रालय का दे दिया गया । पर स्किल इंडिया से निकलते रोजगार की रफ्तार जिसनी धीमी
है उसमें ये सवाल ही है कि आखिर रोजगार कहा और कैसे निकले ।

मनरेगा
तो रोजगार के लिहाज से अगली तस्वीर मनरेगा की भी डराने वाली ही है । क्योकि मनरेगा की बहुतेरी तस्वीर हर जहन में होगी । राजस्थान में राहुल गांधी भी एक वक्त मनरेगा मजदूरो के बीच मेहनत करते नजर आये । और प्रदानमंत्री मोदी ने भी हर बरस मनरेगा बजट भी बढाया । 2014-15 में 32,139 करोड , 2015-16 में 39,974 करोड, 2016-17 में 47,411 करोड, 2017-18 में 53,152 करोड । पर बावजूद इसके सरकार के ही आंकड़े बताते हैं कि जितनी बडी तादाद में मनरेगा मजदूर देश में है । उतने मजदूर को काम देना तो दूर, जितनो को मनरेगा का काम दिया जाता है उन्हे भी सौ दिन काम मिल नही पाता है । देश में मनरेगा मजदूरो के आंकडो से समझे हालात है कितने विकट । क्योकि 12,65,00,000 मनरेगा जॉब कार्ड जारी किया गया । जिसमें 7,24,00,000 जाब कार्ड वालो को काम मिला । जबकि कुल मनरेगा मजदूरो की तादाद 25,17,00,000 है । और मनरेगा के तहत देश भर में 25 फिसदी काम ही पूरा हो पाया । मसलन 2017-18 में 1,67,00,000 काम में से 43,55,000 काम ही पूरा हो पाया । और मनरेगा के तहत सबसे मुश्किल तो 100 दिन का काम भी नहीं मिल पाना है । खुद सरकार के आंकडे बताते है कि औसतन 168 रुपये के हिसाब से 40 दिन का ही काम दिया जा सका । यानी जो सिर्फ मनरेगा पर जिन्दगी चला रहा होगा उसके हिस्से में हर दिन के आये 18 रुपये 41 पैसे । यानी मनरेगा जिस सोच के साथ देश में लागू किया गया । वह जिस तेजी से लडखड़ा रहा है उससे ग्रामीण भारत में रोजगार का नया संकट पैदा हुआ है और असर उसी का है कि किसान मजदूर के सामने संकट गहरा रहा है ।

हेल्थ सर्विस
और इसी कडी में सरकार की हेल्थ सर्विस को भी जोड़ दीजिये । क्योंकि बजट में तो बकायदा स्वास्थ्य बीमा योजना से देश के 50 करोड लोगो को लाभ बताया गया दिखाया गया । तो ऐसे में हेल्थ सिस्टम ही कितना मजबूत है जरा इसे भी परख लें । क्योकि जिस देश में अस्पताल में भर्ती होने का ही आधी बीमारी से राहत मान लिया जा हो । जिस देश में डाक्टर बाबू एक बार नब्ज देख लें तो ही आधी बिमारी खत्म हो जाती हो । जिस देश में अस्पताल की चौखट पर मौत मिल जाये तो परिजन खुश रहते है कि चलो अस्पताल तक तो पहुंचा दिया । उस देश का अनूठा सच सरकारी आंकडो से ही समझ लीजिये एक हजार मरीजों पर ना तो एक डाक्टर ना ही एक बेड । ढाई हजार लोगो पर एक नर्स है । पर इलाज किसी देश में कमाई का जरीया बन चुका है तो वह भारत ही है। देश में सरकारी हॉस्पीटल की तादाद 19817 है। वही प्राइवेट अस्पतालों की तादाद 80,671 है।
यानी इलाज के लिये कैसे समूचा देश ही प्राइवेट अस्पतालो पर टिका हुआ है। ये सिर्फ बड़े अस्पतालों की तादाद भर से ही नही समझा जा सकता बल्ति साढे छह लाख गांव वाले देश में सरकारी प्राइमरी हेल्थ सेंटर और कम्युनिटी हेल्थ सेंटर की संख्या सिर्फ 29635 है। जबकि निजी हेल्थ सेंटरो की तादाद करीब दो लाख से ज्यादा है । यानी जनता को इलाज चाहिये और सरकार इलाज देने की स्थिति में नहीं है। या कहें इलाज के लिये सरकार ने सबकुछ निजी हाथों में सौंप दिया है। पर सवाल है कि सरकार इलाज के लिये नागरिको पर खर्च करती कितना है । तो सरकार प्रति महीने प्रति व्यक्ति पर 92 रुपये 33 पैसे खर्च करती है। लेकिन हालात सिर्फ इस मायने में गंभीर नहीं कि सरकार बेहद कम खर्च करती है । हालात इस मायने में त्रासदीदा.यक की किसी की जिन्दगी किसी की कमाई है । 2018-19 में देश का हेल्थ बजट 52 हजार करोड का है । तो प्राइवेट हेल्थ केयर का बजट करीब 7 लाख करोड का हो चला है । और मुश्किल तो ये भी है कि अब डाक्टरो को भी सरकारी सिस्टम पर भरोसा नहीं है। क्योंकि देश में 90 फिसदी डाक्टर प्राइवेट अस्पतालों में काम करते हैं। इंडियन मेडिकल काउसिंल के मुताबिक देश में कुल 10,22,859 रजिस्टर्ड एलोपैथिक डाक्टर है । इनमें से सिर्फ 1,13,328 डाक्टर ही सरकारी अस्पतालों में हैं। यानी सरकारी सिस्टम बीमार कर दें और इलाज के लिये प्राईवेट अस्पताल आपकी जेब के मुताबिक जिन्दा रखे। तो बिना शर्म के ये तो कहना ही पडेगा कि सरकार जिम्मेदारी मुक्त है और प्राइवेट हेल्थ सर्विस के लिये इलाज भी मुनाफा है और मौत भी मुनाफा है।

शिक्षा
और आखिरी किल शिक्षा के नाम पर ठोंक सकते है । क्योंकि सत्ता में आते ही सौ दिनो के भीतर न्यू एजूकेशन पॉलिसी का जिक्र मोदी सरकार ने किया था । पर अब तो चार बरस पूरे होने को आ गये और पॉलिसी तो दूर सफलता इसी में दिखायी दे रही है कि यूपी में नकल रोकने के लिये सीसीटीवी लगाया गया तो 66 लाख विधार्थियो में से 10 लाख से ज्यादा छात्रों ने परीक्षा ही छोड दी । जबकि इसी यूपी में पिछले बरस करीब 60 लाख छात्र परीक्षा में बैठे और 81 फीसदी पास कर गये । इस बार 15 फिसदी परीक्षार्थी परीक्षा ही छोडॉ चुके हैं । पर नौकरी जब डिग्री से मिलती हो । और नकल कर डिग्री ना मिल पाये तो जाहिर है दूसरे उपाय शुरु होंगे । क्योंकि शिक्षा का आलम 10 वीं या 12 वी भर नहीं बल्कि प्रोफशनल्स डिग्री तक फर्जी होने में जा सिमटा है । एसोचैम की रिपोर्ट कहती है मैनेजमेंट की डिग्री ले चुके 93 फिसदी नौकरी लायक नहीं है । और नैसकाम की रिपोर्ट कहती है कि 90 फिसदी ग्रेजुएट और 70 फिसदी इंजीनियर प्रशिक्षण के लायक नहीं है ।

(वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून्न बाजपेयी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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