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मौत की ख़बर और मीडिया की भावनात्मक कंगाली

किसी हादसे में किसी के बच्चे की मौत हो जाती है, किसी शहीद जवान की बीवी बिलख रही होती है और आप रोते परिवारवालों के आगे माइक करके पूछने लगते हैं कि कैसा लग रहा है?

New Delhi, Feb 27 : श्रीदेवी की मौत के बाद जिस तरह से मीडिया में इसकी कवरेज हो रही है वो एक बार फिर से मीडिया संस्थानों की कमअक्ली और संवेदनहीनता को उजागर करता है। उनकी फिल्मों के नाम को लेकर मौत की ख़बर में घटिया तुकबंदियां बिठाई जा रही है। फिर चाहे वो तुकबंदी कितनी भी रचनात्मक क्यों न हो वो ख़बर की गंभीरता कम करती है। किसी की मौत आपके लिए अपनी रचनात्मकता दिखाने का मौका या मंच नहीं होनी चाहिए। मौत की ख़बर को सीधे सरल तरीके से बताना चाहिए। ‘सदमा’ दे कर चली गई ‘चांदनी’ जैसी बचकानी तुकबंदियां बिठाकर आप दर्शकों का या पाठकों का ये बताना चाहते हैं कि देखो-देखो मैंने कैसे उसकी फिल्मों के दो नाम जोड़कर पूरे मूड को समेट लिया। नहीं भाई, ऐसे मौके पर इस तरह की तुकबंदी निहायत ही ओछापन है।

एक तरह चैनल की रिपोर्ट दर्शकों को रूलाने के लिए कह रही है कि श्रीदेवी की अभी उम्र ही क्या थी, उन्होंने देखा ही क्या था, उनकी बेटियाों से मां का सहारा छिन गया और ये कहने के अगले ही सेकेंड में आप उनकी उनकी फिल्मों के गाने चलाने लगते हो।
क्या किसी की मौत की ख़बर के बीच मेरे हाथों में नौ-नौ चूड़ियां चलाना इसलिए Justify हो जाता है क्योंकि वो उनकी फिल्म का गाना था? क्या श्रीदेवी के घरवाले उन्हें याद करते वक्त इन गानों के बारे में सोच रहे होंगे? या उनसे जुड़ा कोई भी शख्स ऐसे मौके पर गाना सुनना चाहेगा? और अगर वो (परिवारवाले) नहीं सुनना चाहेंगे जो सबसे ज़्यादा दुखी हैं, तो आपने ये कैसे मान लिया कि आम लोगों के लिए उनकी फिल्मों के गाने सुनना बेहद ज़रूरी है।

हकीकत तो ये है कि आपको श्रीदेवी की मौत से कोई सरोकार है ही नहीं। उनकी मौत आपके लिए उनसे जुड़ी दस कहानियां, उनके दस बेहतरीन गानें सुनाने का एक मौका भर है। क्योंकि जब आप ये कहते हैं कि उन्होंने अभी देखा ही क्या था, तो आप अफसोस व्यक्त नहीं करते बल्कि ऐसी सस्ती पंक्तियां लिखकर लोगों को भावुक करना चाहते हैं। और अगर मौत को दुखद मानते ही हैं (जो कि थी भी ) तो दुख की इस घड़ी में बार-बार गाने क्यूं सुना रहे हैं?
आप उनकी मौत की ख़बर दिखाइए, उनके साथ काम कीजिए कलाकारों से बात कीजिए, उनकी फिल्मों के दृश्य भी दिखाइए मगर हर थोड़ी देर में उनसे जुड़े गाने सुनाने का क्या औचित्य है? उनकी फिल्मों के टाइटल जोड़कर घटिया तुकबंदियां बिठाने का क्या मतलब है?

जब हम किसी दंगे में किसी की मौत पर बयानबाज़ी करने पर नेताओँ को कोसते हैं कि उन्हें मौत से कोई सरोकार नहीं वो सिर्फ अपनी राजनीति चमका रहे हैं, तो ऐसी मौतों के वक्त संवेदनहीनता दिखाकर मीडिया भी तो वही करता है।
नेता मौत पर बयानबाज़ी करके राजनीति चमकाते हैं, तो आप किसी की मौत पर चित्रहार चलाकर अपना धंधा चला रहे हैं।
किसी हादसे में किसी के बच्चे की मौत हो जाती है, किसी शहीद जवान की बीवी बिलख रही होती है और आप रोते परिवारवालों के आगे माइक करके पूछने लगते हैं कि कैसा लग रहा है?
क्या किसी के दुख की निजता की इसलिए परवाह न की जाए क्योंकि वो आम आदमी है? क्या हमें ये समझ नहीं है कि इतने गहरे दुख के वक्त इंसान अकेला रहना चाहता है। जो इंसान रो-रोकर पागल हो रहा है वो आपसे भला कैसे बात करेगा? क्या उसकी इस स्थिति का सम्मान करते हुए उसे अकेला नहीं छोड़ देना चाहिए। क्या हमारे लिए उसकी ‘बाइट’ उसकी दुख से ज़्यादा बड़ी है?

जब टीवी (मीडिया) शुरूआती तौर पर ऐसी गलतियां करता था, तो दलील दी जाती थी कि ये माध्यम अभी बाल्य अवस्था में है, इसे mature होने का वक्त दीजिए मगर अब तो ये बालिग भी हो गया और इसे चलाने वाले संपादक अधेड़ हो गए पर क्या किसी में इतनी भावनात्मक समझदारी नहीं आई। दिक्कत ये है कि जब हमें किसी गैरज़रूरी मुद्दे पर चार लोगों को बुलाकर भिड़वाना होता है, तो वहां भड़काने से काम चल जाता है? किसी गैरज़रूरी मूर्खता को असल ख़बर बताकर सनसनी पैदा करना भी मुश्किल नहीं है मगर जहां मौत की बात आती है वहां आप निहत्थे हो जाते हैं। उस स्थिति से निपटने की बौधिक तैयारी आपकी होती नहीं और इन ख़बरों के ट्रीटमेंट में आप उसी ‘पैंतरेबाज़ी’ से काम लेतै हैं जो पत्रकारिता में आने के बाद आपने सीखी थी और फिर वही होता है जो अब हो रहा है।

(नीरज वधवार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं।
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