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यह वाम पर भाजपा की जीत नहीं कांग्रेस की हार है

त्रिपुरा : माणिक बाबू और वाम मोर्चे की एकरस सरकार से लोग ऊबने लगे थे. यह ऊबन उनके बीच अधिक थी, जो वाम की विचारधारा से दूर थे अथवा वाम के अन्दर भी उनके अन्दर विचलन पैदा हो गया था।

New Delhi, Mar 06 : त्रिपुरा में भाजपा की भारी जीत और वाम मोर्चा सरकार के पतन से खूब हाहाकार मचा है. वाम नेता और वाम बुद्धिजीवी सब चिंतन-मनन कर रहे हैं. कुछ वाम बुद्धिजीवी कह रहे हैं कि हम वहां मुख्यमंत्री माणिक सरकार की ईमानदारी, सादगी पर ही लहालोट थे और भाजपा वहां सरकार बना ले गई, इसका मतलब ईमानदारी और सादगी का हमारा सिद्धांत गलत है. यह सच है कि त्रिपुरा में वाम मोर्चे की सरकार का ख़त्म होने का एक मतलब यह भी है कि अब सादगी, ईमानदारी कोई वैल्यू नहीं रही है. किसे नहीं पता कि माणिक सरकार ईमानदारी की जीती-जागती मिसाल थे. वे जिस तरह से अपने वेतन और सुविधाओं का न्यूनतम हिस्सा ही लेते थे, वह किसी से छिपा नहीं है और इसीलिए पूरे 25 साल तक त्रिपुरा में वाम मोर्चे की सरकार रही. इसमें से 20 साल तो अकेले माणिक बाबू के खाते में हैं. मगर सत्ता और आग दोनों के कुछ अलिखित सिद्धांत हैं, ये जितना ही फैलेंगे उतने ही अपने दुश्मन पैदा करेंगे. तब सादगी, ईमानदारी धरी की धरी रह जाती है. माणिक बाबू और वाम मोर्चे की एकरस सरकार से लोग ऊबने लगे थे. यह ऊबन उनके बीच अधिक थी, जो वाम की विचारधारा से दूर थे अथवा वाम के अन्दर भी उनके अन्दर विचलन पैदा हो गया था. इस असंतोष को कांग्रेस नहीं ‘कैश’ करा पाई और भाजपा ने इसे भुना लिया. अब इसमें काहे की हाय-तौबा!

हार के वावजूद माणिक बाबू को लगभग 42 प्रतिशत वोट मिल जाना, इस बात का संकेत है कि उनका अपना वोट-बैंक करीब-करीब ‘इंटैक्ट’ रहा. इससे यह भी पता चलता है कि जो परिधि का वोट था, उसे भाजपा ले गई. इसके अलावा छोटे-मोटे दलों और नेताओं का वोट भी वह ले गई. वर्ना सुदूर उत्तर-पूर्व में भाजपा कैसे सब पर भारी पड़ गई! दरअसल कांग्रेस अब नियतिवादी पार्टी बन गई है. एक परिवार पर आश्रित रहने के कारण उसके नेता अपने अन्दर की चमत्कारिक प्रतिभा को खो चुके हैं. आज़ादी के बाद जिस कांग्रेस में दिग्गज और तपे-तपाए नेताओं की भरमार थी, उस कांग्रेस में अब चापलूस नेता ही बचे हैं.

यही कारण है कि न तो कांग्रेस अपने बूते कुछ कर पाई न उसकी अगुआई में चल रहे संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के नेता. वर्ना त्रिपुरा में भाजपा न आती क्योंकि वहां भाजपा की विचारधारा से मेल खाता वोट-बैंक नहीं है. यही हाल नागालैंड और मेघालय में रहा. नागालैंड में कांग्रेस उन लोगों को मिला नहीं पाई, जिनका आधार है. अब भले कांग्रेसी यह कहकर शोर मचाएं कि नागालैंड में भाजपा ने देशविरोधी ताकतों से गठजोड़ किया है मगर उनकी यह मिमियाहट नगाड़ों के शोर में डूब गई, क्योंकि इंदिरा गाँधी के समय कांग्रेस और बाद में राजीव गाँधी ने भी यही किया था. मेघालय में तो उसने बैठे-ठाले गेंद भाजपा के पाले में फेक दी, जिसको मात्र वहां दो सीटें मिली हैं.

कांग्रेस के इसी नियतिवाद का नतीजा है कि लगभग हर जगह कांग्रेस का विकल्प भाजपा बनती जा रही है. चाहे उत्तर भारत हो, पश्चिमी या पूर्वी हो अथवा उत्तर-पूर्व. दक्षिण में अभी तक वह कर्नाटक में ही एक बार सरकार बनाने में सफल रही है और कर्नाटक विधानसभा का चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं. फ़िलहाल वहां कांग्रेस की सिद्धरमैया सरकार है, पर वे रिपीट कर पाएंगे, इस पर शक है. एक तरह से भाजपा ने येन-केन-प्रकरेण करीब-करीब पूरे भारत को अपने रंग में रंग लिया है. किसी भी पार्टी को जब अपार बहुमत मिलता है, तब उसके तानाशाह बनने के खतरे भी रहते हैं, लेकिन दिक्कत यह है कि विपक्ष भी तो हुंकार भरे. यहाँ तो विपक्ष सुस्त पड़ा है. और रीजनल पार्टियाँ या तो पैसे से बिक जाती हैं या अपने जातीय समूहों के दबाव से. उत्तर प्रदेश, जहाँ करीब तीन दशकों तक रीजनल पार्टियों का दखल रहा, धीरे-धीरे अपना वजूद खोती जा रही हैं. ऐसे में विपक्ष की कमान किसी नेशनल पार्टी को ही सम्भालनी पड़ेगी, और वह पार्टी कांग्रेस हो सकती है. लेकिन इसके पूर्व से उसके नेताओं को अपनी जड़ता तोड़नी होगी. कांग्रेस परिवार मोह से बाहर आए, तब ही कुछ हो सकता है.”

(वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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