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दंगल और दस तक के एंकर भी इसी नट-वोल्ट वाले सिद्धांत की एक जीवंत मिसाल हैं

मोदी समर्थक माने जाने वाले किसी एंकर से आजतक में ‘दंगल’ करवाना और वहां से प्रगतिशील सोच के माने जाने वाले किसी एंकर के दस्तक से दफ़ा होने की ख़बर या अफ़वाह भी उसी नट-वोल्ट वाले सिद्धांत की एक जीवंत मिसाल है।

New Delhi, Mar 11 : कारोबारी समय को भांप लेते हैं। वे मायाजाल का ऐसा तिलस्म रचने के जादूगर होते है, जिसमें चित भी उनकी होती है और पट भी उन्हीं की होती है। कारोबारियों के कारोबार को आगे बढ़ाने में दिन-रात लगे कारिंदे कारोबार के उस मशीन में फिट होने वाले नट-वोल्ट से ज़्यादा कुछ भी नहीं होते, जब कोई नट-वोल्ट फिट नहीं बैठ पाता, कारोबारी उसे बिना किसी भावना-संवेदना के उसे बदल देते हैं। दुनिया के मैनेजमेंट गुरुओं ने कारोबार के लिए जितने भी मैनेजमेंट मैक्सिम(प्रबंधन सिद्धांत) गढ़े हैं, उन सभी का मक़सद सिर्फ़ इतना ही है कि कारोबार फूलता-फलता रहे, आगे बढ़ता रहे और ऐसा होते हुए इसमें धड़कते जज़्बात की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। अगर हमें-आपको ये जज़बात कहीं दिखते भी हैं, तो यक़ीन मानिये, वह जज़्बात उन नट वोल्ट में उस ग्रिज़(घर्षण को कम करने वाला पदार्थ) की तरह ही इस्तेमाल होते हैं, जो कारोबार के रास्ते या प्रक्रिया में पेश आते घर्षण को कम करता हैै। आजतक के अरुणपुरी का ज़ी न्यूज़ से मोदी समर्थक माने जाने वाले किसी एंकर से आजतक में ‘दंगल’ करवाना और वहां से प्रगतिशील सोच के माने जाने वाले किसी एंकर के दस्तक से दफ़ा होने की ख़बर या अफ़वाह भी उसी नट-वोल्ट वाले सिद्धांत की एक जीवंत मिसाल है।

सोनिया गांधी अचानक से किसी चमत्कार की तरह आजतक के इंडिया टूडे कनक्लेव में अवतरित होती हैं, अपनी बातें रखती हैं और कुछ ही देर में वो ज़्यादातर न्यूज़ चैनलों की हेडलाइन हो जाती हैं। अरुण पुरी की भाव-भंगिमा अपने जर्नलिज़्म के कारोबार के भविष्य को भांपती सी दिखती है। पिछले लगभग चार साल से भी ज़्यादा समय तक मोदीमय होने के बाद उन्होंने सोनियामय होने की अपनी झलक दिखा दी है। संभव है कि यह झलक इसलिए भी दिखायी गयी हो कि उनके चैनल का रंग लगातार भाजपायी होता दिखता रहा है। आम आदमी का दाग़ तो आसानी से नहीं मिटता, लेकिन वह कारोबारी ही क्या, जिसका दामन कोई स्थायी दाग़ लेकर घूमता चले। आज के भाजपायी अम्बानी-अडानी जैसे कारोबारी कल के कांग्रेसी अम्बानी-अडानी कारोबारी ही तो थे। लिहाज़ा पत्रकारिता के कारोबारी अरुण पुरी ने भी अपने कारोबार के लिए एक सियासी संभावना को आंकना शुरू कर दिया है।

सोनिया गांधी की बॉडी लैंग्वेज़ निस्संदेह बदली हुई थी। जिस प्राजातांत्रिक राजघराने से सोनिया आती हैं, वहा का एक-एक सदस्य स्वयं को प्रधानमंत्री पद का स्वाभाविक दावेदार मानता है और उनकी इसी मान्यता ने उन्हें राजशाही तेवर बख़्शा है। उन्होंने प्रजातांत्रिक कवच में राजशाही तेवर को सुरक्षित रखने की कला भी विकसित की हुई थी। इस तेवर को पिछले कुछ वर्षों में ज़ोरदार झटका लगा है। उसकी वजह सिर्फ़ इतनी है कि उनकी ही पार्टी के तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंव राव और तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था के जिस उदारवादी खिड़की को खोला था, उस खिड़की से सोच और संभावना की नयी बयार अंगड़ाई लेने लगी है। अपनी सीमा में ही सही, बेहतर ज़िंदगी के सपने अब हाशिये पर खड़े लोगों के दायरे में भी आ गये हैंं। वह अब किसी हद तक अंग्रेज़ी भाषा के औपनिवेशिक तेवर से तर-ब-तर नहीं होता, वह अब किसी ‘बड़े घराने’ के झूठे तराने भी नहीं गाता। वह जान गया है कि ‘बाजुओं में दम है, तो फिर काहे का ग़म है’।

रोज़गार के लगभग सभी क्षेत्र ऐसे मानव संसाधनों से भरे पड़े हैं, जिनकी पृष्ठभूमि बेहद निम्न रही है। किसी पकौड़ी तलते माता-पिता के बेटे-बेटियों ने आईआईएम या आईआईटी जैसे देश के प्रतिष्ठतम संस्थानों में प्रवेश पाने के मैजिकल मार्क्स के भ्रम को भी तोड़ा है, कुलीनों के लिए बनायी गयी आईएएस( पहले आईसीएस) की इस्पाती चौखट में भी मज़दूरों-कामगारों के बेटे-बेटियों ने अपनी धमक जमायी है। ऐसे में राजनीतिक संभ्रान्तवाद का बहुत मतलब बचता नहीं है। इसकी वजह बहुत छोटी, मगर बेहद असर वाली है और वह यह कि लोगों से ही सियासत का तेवर बनता है। आम लोगों के मन से राजशाही के भीतर पला-बढ़ा मनोविज्ञान धुल चुका है। वो अपना नायक अपने बीच से चाहता है। सोनिया शायद इस धुले हुए मनोविज्ञान को थोड़ा-थोड़ा समझने लगी हैं, वर्ना मैडम या बाबा का इंटरवीऊ या बाइट का हासिल हो जाना, तो किसी ‘पत्रकार’ की क़िस्मत के चमक जाने जैसा रहा है। जितनी जल्द हो सके, सोनिया की तरह बाक़ी राजनेता भी समझ जायें, तो उनके बचे-खुचे करियर के लिए ठीक है। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, मायावती आदि जैसे नेताओं को भी समझना होगा कि उन्होंने भी समय के साथ वही तेवर अख़्तियार कर लिये, जिसका विरोध करते हुए ही राजनीति ने उनका स्वागत किया था। इनकी उल्टी गति, सोनिया की गति की तरफ़ वाली ही रही है। इन जैसे राजनेताओं ने निम्न सामाजिक पृष्ठभूमि से चलकर राजशाही को अपनी ठाठ बनायी है। उनकी इसी ठाठ और उससे बनी भ्रष्टाचार के आरोप की पृष्ठभूमि ही उन्हें लील गयी है। मोदी सत्ता में आते हैं या नहीं, कुछ भी कह पाना मुश्किल है। लेकिन इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि इन चार सालों ने आम लोगों के लिए आम नेताओं की मांग को थोड़ा और पुख़्ता कर दिया है। वर्ना सोनिया गांधी के मुंह से यह सुन पाना किसी सपने की तरह ही है कि कांग्रेस का नेतृत्व किसी बाहरी के हाथ में भी सौंपा जा सकता है।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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