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अयोध्या : कोई सूरत नजर नहीं आती

अयोध्या : इस संवेदनशील मामले का हल दोनों पक्षों द्वारा मिलकर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में ही निकाला जाना उचित होगा।

New Delhi, Mar 12 : सुप्रीम कोर्ट में कुछ ही दिनों बाद राम मंदिर-बाबरी मस्जिद के विवाद पर निर्णायक सुनवाई शुरू होने वाली है। संभावना है कि इस साल के अंत तक इस मसले पर न्यायालय का बहुप्रतीक्षित फैसला आ जाएगा। ग़ौरतलब यह है कि यह फैसला सिर्फ जमीन के मालिकाना हक़ को लेकर ही आएगा, इसका किसी समुदाय की धार्मिक आस्था से कोई सरोकार नहीं होगा। शायद इसी को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कुछ अरसे पहले यह सुझाव दिया था कि राम मंदिर का मुद्दा कोर्ट के बाहर बातचीत से हल किया जाना चाहिए। चूंकि यह मामला जमीनी विवाद के अलावा दो धर्मों की आस्था से भी जुड़ा है, इसलिए दोनों पक्ष आपस में बैठकर बातचीत के ज़रिये इसका हल निकालने की कोशिश करें तो बेहतर होगा। ज़रुरत पड़ी तो सुप्रीम कोर्ट बातचीत में मध्यस्थता के लिए तैयार है। न्यायालय की चिंता जायज़ है। उसका फैसला जिसके पक्ष में भी जाए, बहुत सारे दर्द और सवाल छोड़ जाएगा। अगर फैसला हिन्दुओं के पक्ष में गया तो न्यायालय पर भगवाकरण और बहुसंख्यकों के तुष्टिकरण का आरोप लगेगा। देश के मुसलमानों के भीतर लंबे अरसे तक ऐसे किसी फैसले की टीस बनी रहेगी। फैसला अगर मुस्लिमों के पक्ष में गया तो न्यायालय पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगेगा। लगभग पांच सौ सालों से राम जन्मभूमि मंदिर के लिए संघर्षरत कट्टर हिन्दुओं का एक वर्ग इसे स्वीकार नहीं करेगा। विश्व हिन्दू परिषद् ने तो मंदिर निर्माण की तमाम तैयारियां भी लगभग पूरी कर ली है। तब ज्यादा आशंका इस बात की होगी कि 2019 के चुनाव को दृष्टि में रखते हुए भाजपा सरकार संसद में क़ानून बनाकर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के विपरीत मंदिर के निर्माण का रास्ता साफ़ कर दे। लोकसभा में उसके पास बहुमत तो है ही, अगले कुछ महीनों में राज्यसभा का बहुमत भी उसके साथ होगा। दोनों ही स्थितियों में तर्क पर आस्था को तरज़ीह देने वाले इस देश की सांप्रदायिक स्थिति कैसी होगी और दोनों संप्रदायों के बीच अविश्वास किस हद तक गहरा होगा, इसकी कल्पना कुछ मुश्किल नहीं है।

ज़ाहिर है कि इस संवेदनशील मामले का हल दोनों पक्षों द्वारा मिलकर सौहार्द्रपूर्ण वातावरण में ही निकाला जाना उचित होगा। यह और बात है कि सियासत के दबाव और आपसी भरोसे के अभाव में इस दिशा में किया गया कोई भी प्रयत्न अबतक सफल नहीं हो सका है। मसले के सर्वमान्य हल के लिए देश के पांच-पांच प्रधानमंत्रियों की कोशिशें असफल हो चुकी हैं। आस्थावान हिदू अपनी आस्था के प्रतीक-स्थल पर किसी भी परिस्थिति में अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं और बाबरी मस्जिद के विध्वंस और विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार नेताओं की सज़ा के मसले पर अस्वाभाविक विलंब से आहत मुसलमान अब किसी वार्ता के लिए तैयार नहीं। हाल में श्री श्री रविशंकर की मध्यस्थता की कोशिशों से थोड़ी उम्मीद ज़रूर जगी थी, लेकिन उन्होंने मंदिर नहीं बनने की स्थिति में भारत के सीरिया हो जाने का जो मूर्खतापूर्ण और ग़ैरज़िम्मेदार बयान दिया, उससे उनकी कोशिशों को पलीता तो लगा ही, एक निष्पक्ष संत के रूप में उनकी छवि भी दागदार हुई। इस मसले पर विश्व हिन्दू परिषद् और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की अपनी-अपनी हठधर्मिताएं हैं और उन्होंने आपसी समझदारी पर भरोसा करने की जगह यह मसला सर्वोच्च न्यायालय पर छोड़ दिया है। लेकिन क्या विवादास्पद जमीन के मालिकाना हक़ पर सुप्रीम कोर्ट का आने वाला कोई भी फैसला मूल रूप से धार्मिक आस्था के इस विवाद का हल हो सकता है ? शायद नहीं।

ज्यादातर लोगों का मानना है कि मंदिर-मस्जिद विवाद सर्वोच्च न्यायलय के जमीन के मालिकाना हक़ के फैसले से तो क़तई नहीं सुलझने वाला। इससे कुछ और जटिलताएं पैदा होंगी और दोनों संप्रदायों के बीच की कटुता कुछ और बढ़ेगी। रास्ता एक ही है कि विश्व हिन्दू परिषद् और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड समेत सभी धार्मिक संगठनों को दरकिनार कर इस मामले के सभी पक्षकार आपसी बातचीत से सहमति बनाएं से पिछली तमाम कटुताएं भूलकर विवादास्पद स्थल पर राम मंदिर और मस्जिद एक साथ बनाने की कोशिशें शुरू करें। जब ईश्वर और ख़ुदा के बीच कोई फ़र्क या फ़ासला नहीं तो उनके मंदिर और मस्जिद एक साथ क्यों नहीं रह सकते ? कुछ लोगों का यह कहना फ़िज़ूल है कि मंदिर और मस्जिद एक साथ होने से अनंत काल तक सांप्रदायिकता और विधि-व्यवस्था की समस्या बनी रहेगी। इन लोगों को शायद पता नहीं कि देश के कई शहरों और गांवों में मंदिर और मस्जिद का शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व आज भी क़ायम है। पटना में पटना जंक्शन के सामने सैकड़ों सालों से शान से अगल-बगल खड़े पुराने महावीर मंदिर और जामा मस्जिद इस शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व का सबसे बड़ा उदाहरण है। यहां त्योहारों के वक़्त मुस्लिम हिन्दू श्रद्धालुओं की ख़िदमत और ईद और बकरीद के दौरान हिन्दू मुस्लिम नमाज़ियों की सेवा का बेहतरीन उदाहरण पेश करते रहे हैं।

मेरी समझ में पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय तय हुआ फार्मूला इस विवाद को हल करने का सबसे कारगर तरीका हो सकता है। फार्मूला यह था कि मस्जिद जहां है वहीं रहे और मस्जिद के बाहर बने चबूतरे पर राम मंदिर का निर्माण हो। तब विश्व हिन्दू परिषद् ने इस प्रस्ताव को खारिज़ कर दिया था। उन्हें राम मंदिर के साथ मस्जिद का अस्तित्व अस्वीकार्य था। हिन्दू आस्था से जुड़े इस स्थल से दूर सरयू नदी के उस पार मस्जिद बनाने के विश्व हिन्दू परिषद् के प्रस्ताव को मुस्लिम संगठन नकार चुके हैं। वे बाबरी मस्जिद की जमीन पर अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं हुए। देश के तमाम अमनपसंद लोगों की ख्वाहिश है कि विवादास्पद स्थल पर मंदिर और मस्जिद एक साथ बनें और यह निर्माण देश के सामने सांप्रदायिक सद्भाव की मिसाल क़ायम करे। इससे इतर कुछ बुद्धिजीवियों की यह दलील कि विवादास्पद स्थल पर मंदिर या मस्जिद के बज़ाय अत्याधुनिक सुविधाओं से लैस किसी विशाल अस्पताल या विश्वविद्यालय का निर्माण हो, सुनने में अच्छा तो लगता है लेकिन धार्मिक जकड़न के शिकार हिन्दू या मुस्लिम इस प्रस्ताव को कभी स्वीकार नहीं करेंगे।
दुर्भाग्य से देश का विषैला सियासी माहौल देखते हुए ऐसा नहीं लगता कि आपसी सहमति से इस मसले का हल निकालने में किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी धार्मिक संगठन की कोई दिलचस्पी है। सियासत और धर्म की रोजी-रोटी ऐसे अनसुलझे सवालों से ही तो चलती है।

(Dhurv Gupt के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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