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बिहार दिवस पर खुश होने वाली कुछ बातें

पश्चिम बंगाल की वाम सरकार ने बिहार का अनुसरण करते हुए अपने यहां की नौंवी कक्षा की छात्राओं को मुफ्त साइकिल देने का निर्णय किया था।

New Delhi, Mar 23 : पश्चिम बंगाल जब बिहार की सराहना करता है तो बिहारी मानस खुश होता है। बिहार सन 1912 तक बंगाल का ही हिस्सा था। कुछ साल पहले पश्चिम बंगाल सरकार ने बिहार के कुछ कामों को अपनाया था। एक जमाने में एक कहावत प्रचलित थी कि बंगाल जो कुछ आज सोचता है, बाकी भारत कल उसका अनुसरण करता है। कई कारणों से अब वह बात नहीं रही।
पश्चिम बंगाल की वाम सरकार ने बिहार का अनुसरण करते हुए अपने यहां की नौंवी कक्षा की छात्राओं को मुफ्त साइकिल देने का निर्णय किया था।

मनमोहन सरकार के कार्यकाल के वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने राज्य सभा में कहा था कि बिहार में विकास दर 13 फीसदी रही जो सराहनीय है। राज्य के लिए विशेष पैकेज एक हजार करोड़ रुपये से बढ़ा कर दो हजार करोड़ रुपये कर दिया गया है। Bihar जब बंगाल का हिस्सा था, और उसके बाद के वर्षों में भी Bihar के बारे में आम बंगाली मानस में कोई अच्छी धारणा नहीं थी। बंगाल से लौटे बिहारी ग्रामीण बताते थे कि हमें वहां सत्तूखोर कहा जाता है। पर स्थिति बदली है। बंगाली नेताओं से सराहना पाकर Bihar को खुशी होती है। ममता बनर्जी जब रेल मंत्री थीं तो उन्होंने रेल बजट प्रस्ताव में यह घोषणा की थी कि वह 16 हजार पूर्व सैनिकों को रेल यात्रियों की सुरक्षा के लिए बहाल करेगी।

ऐसा करके ममता बनर्जी ने बिहार फार्मूला को ही अपनाया था। कभी बौद्धिक उच्चता के किले में कैद वाम मोर्चा को सन 2009 में लोक सभा चुनाव में भारी चुनावी पराजय का मुंह देखना पड़ा था। उसके बाद पिछड़े अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करने की उसे सूझी। इससे पहले वाम मोर्चा जाति के आधार पर आरक्षण के प्रावधान को प्रतिगामी कदम मानता रहा है। उसे समाज में सिर्फ वर्ग यानी क्लास ही नजर आता था। यूरोप के चश्मे से भारतीय समाज को देखने का यही नतीजा है।

पर, सन 2009 की चुनावी पराजय के बाद बंगाल के वाम नेताओं ने नये विचार के लिए बिहार की ओर रुख किया। Bihar में पसमांदा मुसलमानों के लिए आरक्षण का प्रावधान है। तब एक सत्ताधारी वाम नेता ने बिहार में अपने सूत्रों के जरिए यह पता किया था कि किस तरह बिहार ने पसमांदा मुसलमानों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया है। पटना से उन्हें उसका स्वरूप बता दिया गया।

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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