New Delhi, Mar 24 : नवरात से एक-दो दिन पहले की बात है। कुछ लोगों को एक रेहड़ी के पीछे चलते हुए देखा। वे जब पास से निकले, तब समझ आया कि ये तो माता की जोत लेकर जा रहे हैं। 15-20 वे जरूर रहे होंगे। उनमें पांच-सात महिलाएं भी थीं। अच्छे-खासे रंगबिरंगे कपड़ों में थे वे। महिलाएं तो ज्यादा ही लाल-पीली हो रही थीं। उन्हें देखते ही अमीर खुसरो याद आने लगे। ‘आज रंग है ऐ माँ रंग है री, मेरे महबूब के घर रंग है री।’ मैं गुनगुनाने लगा और नुसरत फ़तह अली खां की अज़ीम गायकी को महसूस भी करता रहा। माना जाता है हज़रत निज़ामुद्दीन को रंगबिरंगे कपड़ों में गाते-बजाते मंदिर जाते हुए लोगों को देख कर बहुत अच्छा लगता था। मुझे उन लोगों को देख कर उतना अच्छा तो नहीं लगा होगा। लेकिन यह एहसास ही गजब था कि हज़रत को जो चीज अच्छी लगती थी, उसकी ही एक झलक मैं देख रहा हूं। या यह कहिए कि लौट कर इतना पीछे देखने की इच्छा हो रही है।
13-14वीं सदी की दिल्ली है हज़रत का वक्त। तब इस इलाके का नाम निज़ामुद्दीन नहीं पड़ा था। वह तो हज़रत के नाम पर बाद में पड़ा। तब उसका नाम था गियासपुर।
उस दौर में जब नवरात आते थे, तो शहर का माहौल बदल जाता था। हालांकि तुग़लक बादशाह था जिसे ये सब पसंद नहीं था। तो नवरात के समय में लोग कालकाजी मंदिर जाने के लिए वहीं से गुजरते थे। सोच कर ही अजीब लगता है कि कैसा होगा वो रास्ता? तब तो शाहजहांनाबाद यानी पुरानी दिल्ली भी नहीं बसी थी। पुरानी दिल्ली तब महरौली थी। आज शायद ही कोई निज़ामुद्दीन से कालकाजी पैदल जाए। लेकिन तब तो ज्यादातर पैदल ही चलना होता था। उस दौर के हिसाब से ये दूरी कोई ज्यादा नहीं थी। हज़रत अपने किसी झरोखे से उसे देखते थे। और बेहद खुश होते थे। उन्हें महसूस होता था कि मानो रंगों का पूरा काफिला ही गुजर रहा हो। खासतौर पर महिलाएं तो ज्यादा ही रंगबिरंगे कपड़ों में दिखलाई पड़ती थीं। गाते-बजाते लोगों को देख कर हज़रत कहीं खो जाते थे। उन दिनों भी महिलाएं लाल और पीले कपड़ों में ही ज्यादा दिखती थीं। शायद इसलिए कि लाल माता का रंग है और पीला बसंत का। बसंत के नवरात चल रहे हैं और माता के यहां जाना है, तो उससे बेहतर रंग क्या हो सकता है?
अमीर खुसरो जानते थे कि उनके हज़रत इस अंदाज के मुरीद हैं! इन रंगों के मुरीद हैं! इस मस्ती के मुरीद हैं! फिर उन दिनों हज़रत कुछ उदास भी चल रहे थे। अपने भानजे की मौत ने उन्हें बेहद उदास कर दिया था। उन्होंने महफिल ए समाअ यानी कव्वाली की महफिल भी बंद कर दी थी। कहते हैं कि खुसरो ने एक दिन पीले रंग की साड़ी पहनी और हज़रत के पास पहुंच गए। और मां के भक्तों की तरह नाचने-गाने लगे। यही वह वक्त था, जब उनके मुंह से निकला था, ‘आज रंग है ऐ माँ…।’ प्रकृति और संस्कृति की ऐसी मिसाल! बसंत मना रहे हैं और मां की भक्ति भी कर रहे हैं। वाह!
हज़रत रंगों के मेले को पसंद कर रहे हैं। वह एक मजहब के होने के बावजूद दूसरे मजहब को सराह रहे हैं। रंगों को चाहने का ही मतलब है कि हम समाज में तमाम तरह के रंग चाहते हैं। हम समाज के अलग-अलग रंगों को मान ही नहीं रहे, उनके मुरीद भी हो रहे हैं। आज सचमुच हमें अलग-अलग रंगों की जरूरत है। यह सोच कर ही दुख होता है कि इतने रंग होने के बावजूद हम दुनिया को एकरंगी क्यों करना चाहते हैं? नवरात भी तो एकरंगी नहीं हैं। नव रात का मतलब ही नौ अलग रातों से है। परम मां को समर्पित हैं ये नौ रातें या दिन। और अपनी मां के कितने रंग देखते हैं हम। यह समाज किस कदर डूब कर नवरात मनाता है। अक्सर सोचता हूं कि नवरात मनानेवाला समाज एकरंगी कैसे हो सकता है? मन ही मन मां से प्रार्थना करता हूं कि हे मां! हमें अपने रंग में रंग दो। हमें रंगों के मेलों की चाहत दो। उस चाहत को बनाए-बचाए रखने की ‘बल-बुद्धि’ दो। हमें एकरंगी होने से बचाओ मां!
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