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यूपी राज्यसभा चुनाव : दसवीं सीट के दाँवपेच !

उत्तर प्रदेश विधानसभा में सदस्यों की संख्या को देखते हुए यहाँ से राज्यसभा का चुनाव जीतने के लिए हर प्रत्याशी को प्रथम वरीयता के 37 वोट चाहिए होते हैं।

New Delhi, Mar 24 : उत्तर प्रदेश का राज्यसभा चुनाव सबसे दिलचस्प रहा। वहाँ एक तरफ़ तो संसद में अपने प्रतिनिधित्व के लिए जूझ रही बसपा थी, दूसरी तरफ़ गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा सीटों पर हार से झुँझलाई भाजपा। हालाँकि विधानसभा में सीटों के लिहाज़ से भाजपा के आठ प्रत्याशियों की जीत पर कोई संदेह नहीं था, लेकिन उसे अपना नौवाँ प्रत्याशी जिता लेने के लिए धनबल, सत्ताबल और छलबल का सहारा लेना अनिवार्य था। क्योंकि विधानसभा में आसानी से नौ लोग ही जीत सकते थे। एक सीट सपा के खाते में जानी जानी थी।

शेष बचे सदस्यों के बूते संयुक्त विपक्ष का इस एक सीट पर दावा था, जिसके लिए बसपा के प्रत्याशी भीमराव अंबेडकर को जिताने के लिए सपा और कांग्रेस राज़ी थे। विधानसभा में 47 सदस्य सपा के हैं और 19 बसपा के, सात कांग्रेस के तथा पाँच निर्दलीय हैं। बाक़ी भाजपा के। उत्तर प्रदेश विधानसभा में सदस्यों की संख्या को देखते हुए यहाँ से राज्यसभा का चुनाव जीतने के लिए हर प्रत्याशी को प्रथम वरीयता के 37 वोट चाहिए होते हैं। यानी अगर 37 विधायक किसी प्रत्याशी के पक्ष में अपनी प्रथम वरीयता का वोट करेंगे तभी वह जीता माना जाएगा। चूँकि सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के पास आठ सीटें जिता लेने की क्षमता थी, इसलिए विपक्ष को उम्मीद थी कि बाक़ी बचे वोटों का बँटवारा वह नहीं करेगी और सदाशयता दिखाते हुए दसवीं सीट बसपा की झोली में जाने देगी।

सपा द्वारा अपनी अधिकृत प्रत्याशी जया बच्चन को जिताने के बाद दस वोट बचते हैं, इन्हें वह बसपा को दे देगी, कांग्रेस के सात भी उसी को मिलेंगे और 19 बसपा के अपने हैं, इस तरह 36 हो गए। एक वोट किसी निर्दलीय का ले लिया जाएगा। लेकिन उप चुनावों की हार से झुँझलाई भाजपा ने इस गणित में सेंधमारी कर दी। इस सेंधमारी में सहायक बने नरेश अग्रवाल। चूँकि नरेश अग्रवाल को उम्मीद थी कि इस चुनाव में सपा जया बच्चन के मुक़ाबले उन्हें वरीयता देगी, पर ऐसा हुआ नहीं तो उन्होंने सपा छोड़कर भाजपा ज्वाइन कर ली। इससे उनके पास सपा में तोड़फोड़ का मौक़ा मिला। उनके बेटे और सपा विधायक नितिन अग्रवाल ने अपना वोट भाजपा को देने के संकेत दिए।

इस तोड़फोड़ से उत्साहित होकर भाजपा ने नौवीं सीट का दाँव चला और गाजियाबाद के व्यवसायी अनिल अग्रवाल को अपना नौवाँ प्रत्याशी घोषित कर दिया। भाजपा के पास अपनी संख्याबल से 28 वट बच रहे थे। उसने सोचा कि निर्दलीयों में सेंध संयुक्त विपक्ष लगाएगा, तो वह भी लगाए। लेकिन तब भी नौवें का जीतना नामुमकिन था। क्योंकि संख्या 33 के ऊपर नहीं जा रही थी। इसलिए कई और तरीक़े अपनाए गए। तोड़फोड़ शुरू हुई। दो विधायकों- बसपा के मुख़्तार अंसारी और सपा के हरिओम यादव को वोट देने की अनुमति नहीं दी गई, क्योंकि दोनों जेल में हैं। बसपा के अनिल सिंह ने तो खुल्लमखुल्ला भाजपा को वोट किया और एक विधायक का वोट खारिज हो गया। तीन वोट तो बसपा के ये अपने कट गए। एक सपा के हरिओम यादव वोट नहीं डाल सके। नितिन अग्रवाल बाग़ी बने और सपा ने अपनी अधिकृत प्रत्याशी जया बच्चन को जिताने के लिए उन्हें एक अतिरिक्त वोट दिला दिया। निर्दलीयों में अमनमणि त्रिपाठी ने भाजपा को वोट किया।

सपा-बसपा पूरी ताक़त लगाकर भी निषाद पार्टी के विजय मिश्र को अपने पाले में नहीं ला पाईं और रघुराज प्रताप सिंह उर्फ़ राजा भैया तथा उनके क़रीबी विनोद सरोज कितना भी सपा के प्रति अपनापा दिखाएँ पर वोट शायद योगी जी के पाले में ही गया। उधर भाजपा का भी एक वोट ख़ारिज हुआ और सहयोगी दल सुहेलदेव सर्वसमाज पार्टी के त्रिवेणी राम और एक अन्य ने सपा को वोट किया। नतीजा यह हुआ कि प्रथम वरीयता के 33 वोट पाकर भी बसपा के भीमराव अंबेडकर हार गए, जबकि भाजपा के अनिल अग्रवाल के 22 पाकर जीत गए। क्योंकि उन्हें द्वितीय वरीयता के बहुत ज़्यादा वोट मिल गए। भाजपा का गणित भी यही था कि अपने अधिकृत आठ प्रत्याशियों को 37-37 से एक या दो वोट ज़्यादा दिलाए जाएं, ताकि एकाध वोट ख़ारिज भी हो तो भी उनकी जीत पक्की हो जाए। बाक़ी द्वितीय वरीयता के सारे वोट अनिल अग्रवाल को दिलाए जाएं ताकि प्रथम वरीयता कम वोट मिलने के बावजूद वे जीत जाएँ। इस तरह भाजपा ने संयुक्त विपक्ष को चारों खाने चित कर दिया!

(वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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