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‘दलितों के भारत बंद ने भारतीय राजनीति और समाज की कुछ भयावह सच्चाइयों को उजागर किया है’

दलितों के आंदोलन के दौरान हुई हिंसा देखकर बहुत दुख हुआ। जब आप न्याय की मांग कर रहे हों तो कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि आचरण भी विधिसम्मत हो।

New Delhi, Apr 03 : भीड़ बहुत अच्छी है, अगर आपके पक्ष में खड़ी हो। भीड़ बहुत बुरी अगर आपके खिलाफ हो। भीड़ जब आपके लिए लाठी और त्रिशूल भांजे तो आप अट्टाहास करते हैं। भीड़ जब आपके खिलाफ भारत बंद करवाने पर उतारू हो जाये तो आपके देश को होने वाले आर्थिक नुकसान की चिंता सताने लगती है। दलितों के भारत बंद ने भारतीय राजनीति और समाज की कुछ भयावह सच्चाइयों को उजागर किया है। पहली बात यह कि संगठित आक्रमकता ही अपनी बात मनवाने का एकमात्र और स्वीकृत तरीका है।

याद कीजिये तमिलनाडु आकर जंतर-मंतर पर धरना दे रहे किसानो को। गले में खोपड़ी की माला, मुंह में मरे चूहे दबाये। पेशाब पीकर अपनी हालत बयान करते किसान। आंदोलन पूरी तरह अहिंसक था। राष्ट्रीय मीडिया पर कवरेज शून्य था। सोशल मीडिया पर लोग तालियां पीट-पीटकर हंस रहे थे। किसान कई दिनों तक बैठे रहे और फिर वापस चले गये। उनकी मांगों का क्या हुआ किसी को पता नहीं है।
अब आरक्षण की मांग कर रहे जाटों के आंदोलन को लीजिये। बसे जलाई गईं। निर्दोष राहगीरों की हत्या की गई। बलात्कार तक के मामले सामने आये। हरियाणा के मुख्यमंत्री ने फौरन जाट भाइयों को बातचीत का न्यौता दिया। आश्वसान दिया गया कि सारे मुकदमे वापस लिये जाएंगे। उसके बाद यूपी चुनाव के दौरान राष्ट्रीय अध्यक्ष जी का ऑडियो आया– जाट नेताओं को पुचकारते, ऐतिहासिक संबंधों की दुहाई देते।

हार्दिक पटेल ने गुजरात में हिंसा फैलाई और रातो-रात हीरो बन गया। उसे मनाने की भरपूर कोशिशें हुईं। लेकिन मुकदमों की वजह से वह इस तरह बिदका कि कांग्रेस के पाले में चला गया। इस तरह हार्दिक पटेल देशद्रोही हो गया लेकिन हिंसक पाटीदार आंदोलन से जुड़े उसके जो साथी बीजेपी के साथ आये वे सब देशभक्त हो गये।
21वीं सदी सबसे बड़े गांधीवादी योगी आदित्यनाथ इस देश के नये पोस्टर ब्वाय हैं, जिन्हे हिंदू वाहिनी नाम का एक हथियारबंद दस्ता स्थापित करने का श्रेय जाता है। बाबाजी भारत के पहले ऐसे नेता हैं, जो सांवैधानिक पद पर बैठकर एक्स्ट्रा ज्यूडीशियल किलिंग को सबसे पवित्र काम के रूप में स्थापित कर रहे हैं और वाहवाही लूट रहे हैं। योगी जी पहले ऐसे नेता हैं, जिन्होने मुख्यमंत्री बनने के बाद अपने उपर लगे सारे आपराधिक मामले हटा लिये।

दूसरी तरफ दलित नेता चंद्रशेखर आजाद रावण का हाल भी सुन लीजिये। कानूनी दांव-पेंच में फंसाकर लगभग गैर-कानूनी तरीके से जेल में बंद किया गया है और अपाहिज हो चुका है। ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे। क्या चंद्रशेखर आज़ाद रावण की जगह उसका नाम संगीत सोम होता तब भी उसकी यह हालत होती? मरे हुए जानवर की खाल उतार रहे लोगो की खाल खींच ली जाती है। घोड़ी चढ़ने वालों की गर्दन काट दी जाती है और इस देश की सबसे बड़ी अदालत को लगता है कि एसटीएसी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है। जातिवादी पूर्वाग्रह की जड़े इस देश में कल्पनाओं से भी ज्यादा गहरी हैं।
दलित आंदोलन के दौरान हुई हिंसा देखकर बहुत दुख हुआ। जब आप न्याय की मांग कर रहे हों तो कोशिश इस बात की होनी चाहिए कि आचरण भी विधिसम्मत हो। हिंसा नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन हिंसा की चिंता इस देश में किसे है? गांधी की तरह चरखा कातते हुए फोटो खिंचवाने वाले प्रधानमंत्री ने समाज में बढ़ रही हिंसा के बारे में कितनी बार क्या बोला है यह याद कर लीजिये और याद आ जाये तो मुझे भी बता दीजियेगा।

(वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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