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ये दलितों का आक्रोश है या फिर सत्ता के संघर्ष का शंखनाद !

इस देश के जनमानस को जल्द ही समझ लेना चाहिए कि बिहार और बंगाल के दंगों की आग बुझी भी नही की दलितों के दिलो में दवानल को डाल दिया गया।

New Delhi, Apr 06 : चुनाव की तुरही बजे उससे पहले ही राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटियों को हर उस आग पर चढ़ाने लगे है जहाँ से सत्ता की रोटियों सेंकी जा सके। सामाजिक संघर्ष और संवैधानिक अधिकारों के लिए ये दलितों का दंगल नही बल्कि साफ तौर पर बज रहा चुनाव का बिगुल है।

इस देश के जनमानस को जल्द ही समझ लेना चाहिए कि बिहार और बंगाल के दंगों की आग बुझी भी नही की दलितों के दिलो में दवानल को डाल दिया गया।
ये कैसे राजनीतिक प्रयोग है? विषमता के विष का कैसा दंश है जो चुनावी साल के शुरू होते ही हर अमन पसंद के दिल मे सिहरन पैदा करने लगा। हम नही जानते कि कब हमारी शांति धार्मिक दंगों में गिरवी रख दी जाएगी और कब जातीय हिंसा के हवाले कर दी जाएगी। एक तरफ सत्ता में बैठे लोग है जो धार्मिक प्रयोगशाला में हिंसा और बंटवारे के महारथी है तो दूसरी तरफ विपक्ष में बैठे दल और पार्टियां है जो जातिगत हिंसा और बंटवारे की बाज़ीगरी के बेताज बादशाह!

इतिहास गवाह है कि जब हिन्दू और मुस्लिम के आधार पर देश बंटता है तो फायदे की रोटी बीजेपी और उसकी समर्थक पार्टियां खाती है। और जब जातिगत खाई को खोदी जाती है तो उसका फायदा कांग्रेस सहित गैर बीजेपी दलों को मिलता है।
दोनो तरफ से देश के सामाजिक सौहार्द की बिसात पर जो नफ़रत के मोहरे फेंके ज रहे है उसकी चाल और उससे होनेवाला देश-बेहाल का दृश्य उभरकर सबके सामने है।

ऐसा लगता है कि सत्ता और विपक्ष के दलों ने ये मान लिया है कि वोटो का धुर्वीकरण रोजी,रोटी,रोजगार और विकास के नाम पर संभव नहीं; क्योंकि मेनिफेस्टो के वायदों की कसौटी पर मोदी सरकार का पासिंग मार्क्स संदिग्ध है तो वही इस सवाल को उठानेवाले दलों मसलन कांग्रेस और उसके सहयोगियों के खाते में भी अपने कार्यकाल के दौरान उपलब्धियों का अंधकार है।
तो ऐसे में दोनो ही धड़ो ने अपने अपने हिस्से की आसान सियासत चुन ली है। बांटो और राज करो! धर्म के नाम पर बांटो बनाम जात के नाम पर बांटो….जिसकी चाल कामयाब हो जाये वह अगले 5 साल तक सत्ता की मलाई चाटो! भारत के इस नियति का भगवान मालिक है क्योंकि जनता तो इन्ही के इशारे पर विध्वंश का नृत्य करते दिखाई दे रही है!

(टीवी पत्रकार मधुरेंद्र कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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