Categories: indiaspeak

38 बरस पुरानी बीजेपी को कैसे याद करें ?- Punya Prasun Bajpai

सवाल ये नहीं है कि बीजेपी अध्यक्ष को मोदी की बाढ़ तले कुत्ता-बिल्ली, सांप-छछूंदर का एक होना दिखायी दे रहा है । सवाल है कि इंदिरा की तानाशाही तले भी जनसंघ और वामपंथी एक साथ आ खडे हुये थे ।

New Delhi, Apr 16 : 38 बरस की बीजेपी को याद कैसे करें। जनसंघ के 10 सदस्यों से बीजेपी के 11 करोड़ सदस्यों की यात्रा । या फिर दो सांसद से 282 सांसदों का हो जाना । या फिर अटल बिहारी वाजपेयी से नरेन्द्र मोदी वाया लाल कृष्ण आडवाणी की यात्रा । या फिर हिन्दी बेल्ट से गुजरात मॉडल वाली बीजेपी । या फिर संघके राजनीतिक शुद्दिकरण की सोच से प्रचारकों को बीजेपी में भेजना और फिर 2014 में बीजेपी के लिये हिन्दु वोटर को वोट डालने के लिये घर से को बाहर निकालने की मशक्कत करना । पर बदलते राजनीति परिदृश्य ने पहली बार इसके संकेत दे दिये है कि 2018 में बीजेपी का आकलन ना तो 1980 की सोच तले हो सकता है और ना ही 38 बरस की बीजेपी को आने वाले वक्त का सच माना जा सकता है । बीजेपी को भी बदलना है और बीजेपी के लिये सत्ता का रास्ता बनाते राष्ट्रीय स्वयसेवक संघ को भी बदलना होगा । ये सवाल इसलिये क्योंकि तीन दशक की बीजेपी की सियासत में जितना परिवर्तन नहीं आया उससे ज्यादा परिवर्तन बीत चार बरस में मोदी काल में आ गया । इमरजेन्सी के गैर कांग्रेसवाद की ठोस हकीकत को जमीन पर विपक्ष की जिस एकजुटता के साथ तैयार किया । उसी अंदाज में मोदी दौर को देखते हुये विपक्ष एकजुट हो रहा है । सवाल ये नहीं है कि बीजेपी अध्यक्ष को मोदी की बाढ़ तले कुत्ता-बिल्ली, सांप-छछूंदर का एक होना दिखायी दे रहा है । सवाल है कि इंदिरा की तानाशाही तले भी जनसंघ और वामपंथी एक साथ आ खडे हुये थे ।

पर तब सत्ता का संघर्ष वौचारिक था । सरोकार की राजनीति का मंत्र कही ना कही हर जहन में था । तो जनता पार्टी बदलाव और आपातकाल से संघर्ष करती दिखायी दे रही थी। पर अब संघर्ष वैचारिक नहीं है । सरोकार पीछे छूट चूके हैं। नैतिक बल नेताओं और राजनीतिक दलो में भी खत्म हो चुका है । तो फिर राजनीति का अंदाज उस आवारा पूंजी के आसरे जा टिका है जो अहंकार में डूबी है। सत्ता की महत्ता उस ताकत को पाने का अंदेशा बन चुकी है जिसके सामने लोकतंत्र नतमस्तक हो जाये । यानी लोकतंत्रिक मूल्यों को खत्म कर संवैधानिक संस्धाओ को भी अपने अनुकूल हांकने की सोच है । यानी संघ परिवार भी जिन मूल्यों के आसरे हिन्दुत्व का तमगा छाती पर लगाये रही वह बिना राजनीतिक सत्ता के संभव नहीं है ये सीख बीजेपी के 38 वें बरस में संघ प्रचारकों ने ही दे दी। और हिन्दुत्व की सोच एक आदर्श जिन्दगी जिलाये रखने के लिये तो चल सकती है पर इससे सत्ता मिल नहीं सकती ये समझ भी सत्ता पाने के बाद संघ प्रचारक ने ही आरएसएस को दे दी । इन हालातों बने कैसे और अब आगे रास्ता जाता किस दिशा में है । इसे समझने से पहले बीजेपी और मौजूदा वक्त की इस हकीकत को ही समझ लें के भारतीय राजनीति में जो बदलाव इमरजेन्सी या मंडल-कंमडल पैदा नहीं कर पाया उससे ज्यादा बड़ा बदलाव 2014 के आम चुनाव के तौर तरीकों से लेकर सत्ता चलाने के दौर ने कर दिये। सिर्फ सोशल मीडिया या कहे सूचना तकनीक के राजनीतिक इस्तेमाल से बदलती राजनीतिक परिभाषा भर का मसला नहीं है । मुद्दा है जो राजनीतिक सरोकार 1952 से देश ने देखे वह देश के सामाजिक-आर्थिक हालातो तले राजनीति को ही इस तरह बदलते चले गये कि राजनीतिक सत्ता पाने का मतलब सत्ता बनाये रखने की सोच देश का संविधान हो गया । और सवा सौ करोड लोगों के बीच राजनीतिक सत्ता एक ऐसा टापू हो हो गया जिसपर आने के लिये हर कोई लालायित है । इसलिये अगर कोई बीजेपी को इस बदलते दौर में सिर्फ राजनीतिक जीत या संगठन के विस्तार या चुनावी जीत के लिये पन्ना प्रमुख तक की जिम्मदेरी के अक्स में देखता है तो वह उसकी भूल होगी । चाहे अनचाहे बीजेपी ही नहीं बल्कि संघ और कांग्रेस को भी अब बदलते हिन्दुस्तान के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य तले राजनीतिक दलों के बदलते चेहरे और वोटरों की राजनीतिक भागेदारी के नये नये खुलते आयाम तले देखना ही होगा ।

दरअसल जनसंघ से बीजेपी के बनने के बीच वाजपेयी जिस ट्रांसफारमेशन के प्रतीक रहे उसी ट्रासंफारमेशन के प्रतीक मौजूदा वक्त में नरेन्द्र मोदी है । जनसंघ का खांटी हिन्दुत्व और बनिया-ब्राह्मण की सोच का होना । और 1980 में वाजपेयी ने बडे कैनवास में उतारने की सोच रखी । और अपने पहले भाषण में गांधीवाद-समाजवाद को समेटा । पर 84 में सिर्फ दो सीट पर जीत ने बीजेपी को सेक्यूलर इंडिया में खुले तौर पर हिन्दुत्व का नारा लगाते हुये देश के उन आधारो पर हमला करना सिखा दिया जो वोट का ध्रुवीकरण करते और चुनावी जीत मिलती । पर उसमें इतना पैनापन भी नहीं था कि बीजेपी पैन-इंडिया पार्टी बन जाती । दक्षिण और पूर्वी भारत में बीजेपी को तब भी मान्यता नहीं मिली । और याद कीजिये नार्थ ईस्ट में चार स्वयंसेवकों की हत्या के बाद भी तब के गृहमंत्री आडवाणी सिर्फ झंडेवालान में संघ हेडक्वाटर पहुंच कर श्रदांजलि देने के आलावा कुछ कर नहीं पाये । पर वाजपेयी जिस तरह गठबंधन के आसरे 2004 तक सत्ता खिंचते रहे उसने पहली बार ये सवाल तो खड़ा किया ही कि कांग्रेस और वाजपेयी की बीजेपी में अंतर क्या है । कांग्रेस की बनायी लकीर पर बीजेपी 2004 तक चलती नजर आई । चाहे वह आर्थिक नीति हो या विदेश नीति । कारपोरेट से किसान तक को लेकर सत्ता के रुख में ये अंतर करना वाकई मुश्किल है कि 1991 से लेकर 2014 तक बदला क्या । जबकि इस दौर में देश के तमाम राजनीतिक दलों ने सत्ता की मलाई का मजा लिया । फिर ऐसा 2013-14 से 2018 के बीच क्या हो गया जो लगने लगा है कि देश की राजनीति करवट ले रही है । और आने वाले वक्त में राजनीति बदलेगी । राजनीतिक दल बदलेंगे । और शायद नेताओं के पारंपरिक चेहरे भी बदलेंगे । क्योंकि इस दौर ने समाज-राजनीति के उस ढांचे को ढहा दिया, जहां कुछ छुपता था । या छुपा कर सियासत करते हुये इस एहसास को जिन्दा रखा जाता था कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारत में लोकतंत्र जिन्दा है । स की राजनीति ने इतनी पारदर्शिता ला दी कि विचारधारा चाहे वामपंथियो की या हिन्दुत्व की दोनो सत्ता के सामने रेगतें नजर आने लगे ।

देश में कारपोरेट की लूट हो या राजनीतिक सत्ता की कारपोरेट लूट दोनों ही एक थाली में लोटते नजर आये । किसान-मजदूर से हटकर देश का पढा लिखा युवा खुद को भाग्यशाली समझता रहा । पर पहली बार वोट बैंक के दायरे में सियासत ने दोनों को एक साथ ला खड़ा कर दिया । कल तक गरीबी हटाओ का नारा था। अब बेरोजगारी खत्म करने का नारा। पहली बार मुस्लिम देश में है भी नहीं ये सवाल गौण हो गया । यानी कल तक जिस तरह सावरकर का हिन्दुत्व और हेडगेवार का हिन्दुत्व टकराता रहा । और लगता यही रहा है मुस्लिमो को लेकर हिन्दुत्व की दो थ्योरी काम करती है । एक सावरकर के हिन्दुत्व तले मुस्लिमो की जगह नहीं है तो हेडगेवार के हिन्दुत्व में जाति धर्म हर किसी की जगह है । पर सत्ता के वोट बैंक की नई बिसात ने बीजेपी को मुस्लिम माइनस सोच कर सियासत करना सिखा दिया । पर देश के सामाजिक-आर्थिक हालात पारदर्शी हुये तो अगला सवाल दलितों का उठा और बीजेपी के सत्ताधारी गुट को लगा गलित माइनस हिन्दु वोट बैंक समेटा जा सकता है । पर देश की मुश्किल ये नहीं है कि राजनीति क्रूर हो रही है । मंदिरो में जा कर ढोगं कर रही है । और वोट बैंक की सियासत भी पारदर्शी हो तो सबकुछ दिखायी दे रहा है । कौन कहा खडा है । दरअसल मुश्किल तो ये है कि चुनावी लोकतंत्र एक ऐसे चक्रव्यूह में फंसता जा रहा है जहा राजनीति सत्ता पाने के लिये ऐसा अराजक माहौल बना रही है, जिसके दायरे में संविधान-कानून का राज की सोच ही खत्म हो जाये । कांग्रेस ने इन हालातों को 60 बरस तक बाखुबी जिया इससे इंकार किया नहीं जा सकता है पर इन 60 बरस के बाद बीजेपी की सत्ता काग्रेस से नहीं बल्कि देश से जो बदला अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिये उठा रही है उसमें वह कांग्रेस से भी कई कदम आगे बढ़ चुकी है । और इन हालातों ने भारतीय राजनीति में नहीं बल्कि जन-मन में चुनावी लोकतंत्र को कटघरे में खड़ा कर दिया है । और ये सवाल इसीलिये बड़ा होते जा रहा है कि वाकई मौजूदा बीजेपी सत्ता काी कोई विकल्प नहीं है । दरअसल हम विकल्प नहीं बदलाव खोज रहे है तो फिर हथेली खाली ही मिलेगी । यहां विकल्प या बदलाव का मसला राहुल गांधी या विपक्ष से नहीं जुड़ा है । बल्कि उन सवालो से जुड़ा है जो वर्तमान का सच है और आने वाले वक्त में सत्ता के हर मोदी को उस रास्ते पर चलना होगा अगर उसके जहन में विक्लप का विजन नहीं है तो । मसलन, नेहरु से लेकर मनमोहन तक का पूंजीवाद उघोगपतियो और कारपोरेट का हिमायती रहा । पर मौजूदा वक्त में कारपोरेट और उघोगपतियों में लकीर खिंच गई । चंद कारपोरेट सत्ता के हो गये । बाकि रुठ गये । किसान-मजदूरों का सवाल उठाते उठाते चुनावी लोकतंत्र ही इतना महंगा हो गया कि चुनाव जनता के पेट भरने का साधन बन गया और राजनीतिक दल सबसे बडे रोजगार के दफ्तर । 1998 से 2009 तक के चार आम-चुनाव में जितना पैसा फंड के तौर पर राजनीतिक दल को मिला । उससे दुगुना पैसा सिर्फ 2013-14 से 2015-16 में बीजेपी को मिल गया ।

सरसंघ चालक भागवत जेड सिक्यूरटी के दायरे में आ गये तो आम जन का उनसे मिलना मनुस्किल हो गया और बीजेपी हेक्वाटर दिल्ली में सात सितारा को ही मात देने लगा तो फिर जन से वह कट भी गया और जन से खुद को सात सितारा की पांचवी मंजिल ने काट भी लिया । पांचवी मंजिल पर ही बीजेपी अध्यक्ष का दफ्तर है । जहा पहुंच जाना ही बीजेपी के भीतर वीवीआईपी हो जाना है । यानी सवाल ये नहीं कि कांग्रेस के दौर के घोटालो ने बीजेपी को सत्ता दिला दी । और बीजेपी के दौर में घोटालो की कोई पोल खुली नहीं है । सवाल है कि घोटालो के दौर में बंदरबांट था । जनता भी करप्ट इक्नामी का हिस्सेदार बन चुकी थी । और इक्नामी के तौर तरीके सामाजिक तौर पर उस आक्रोष को उभरने नहीं दे रहे थे जो भ्रष्टाचार को बढावा दे रहे थे । पर नये हालात उस आक्रोष को उभार रहे है जिसे रास्ता दिखाने वाला कोई नेता नहीं है । भगवा गमछा गले में डाल कानून को ताक पर रखकर अगर गौ-रक्षा की जा सकती है तो फिर नीला झंडा उठाकर शहर दर शहर दलित हिंसा भी हो सकती है । फिर तो दलितो पर निशाना साध उनके घरो पर हमला करते हुये कही ऊंची जाति तो कही हिन्दुत्व का नारा भी लगाया जा सकता है । और इसके सामांनातार जनता का जमा पैसे की लूट कोई कारोबारी कर भी सकता है । और सरकार कारोबारियों को करोडों अरबों की रियायत दे भी सकती है । असल में सामाजिक संगठनों की जरुरत इन्ही से पैदा होने वाले हालातो को काबू में रखने के लिये होते है । पर जब हर संस्धान ने सत्ता के लिये काम करना शुरु कर दिया । या सत्ता ही देश और लोकतंत्र हो जाये तो फिर संविधान कैसे ताक पर है ये सिर्फ सुप्रीम कोर्ट के चार जजो के खुलकर चीफ जस्टिस के खिलाफ आने भर से नहीं उभरता ।

बल्कि देश का चुनावी लोकतंत्र ही कैसे लोकतंत्र के लिये खतरा हो चला है इस दिशा में भी मौन चिंतन की इजाजत दे ही देता है । और जब लोकतंत्र के केन्द्र में राजनीत हो तो फिर आने वाले वक्त की उस आहट को भी सुनना होगा जो अंदेशा दे रही है कि देश बदल रहा है । यानी बीजेपी में नेताओ की जो कतार 2013 तक सर्वमान्य थी वह मोदी के आते ही 2014 में ना सिर्फ खारिज हो गई बल्कि किसी में इतना नैतिक साहस भी नहीं बचा कि वह पूर्व की राजनीति को सही कह पाता । और जिस लकीर को मौजूदा वक्त में मोदी खींच रहे है वह आने वाले वक्त की राजनीति में कहा कैसे टिकेगी खतरा यह भी है । और उससे भी बडा संकेत तो यही है कि चुनावी लोकतंत्र ही स्टेट्समैन पैदा करेगा जो मौजूदा राजनीति के चेहरो में से नहीं होगा । यानी बीजेपी के 38 बरस या कांग्रेस के 133 बरस आने वाले वक्त में देश के 18 से 35 बरस की उम्र के 50 करोड युवाओं के लिये कोई मायने नहीं रखते है । क्योंकि चुनाव पर टिका देश का लोकतांत्रिक माडल ही डगमग है । इसीलिये तो लोकसभा-राज्यसभा में बहुमत के साथ यूपी में बीजेपी की सत्ता होने के बावजूद राम मंदिर बनेगा नहीं । और 1980 में वाजपेयी का नारा अंधेरा छटेगा, कमल खिलेगा अब मायने रखता नही है । क्योकि 70 बरस बाद राष्ट्रीय राजनीति दलो की सत्ता तले चुनावी राजनीति ही चुनावी लोकतत्र का विकल्प खोज रही है ।

(चर्चित वरिष्ठ पत्रकार पुण्य प्रसून्न बाजपेयी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
Leave a Comment
Share
Published by
ISN-2

Recent Posts

इलेक्ट्रिशियन के बेटे को टीम इंडिया से बुलावा, प्रेरणादायक है इस युवा की कहानी

आईपीएल 2023 में तिलक वर्मा ने 11 मैचों में 343 रन ठोके थे, पिछले सीजन…

10 months ago

SDM ज्योति मौर्या की शादी का कार्ड हुआ वायरल, पिता ने अब तोड़ी चुप्पी

ज्योति मौर्या के पिता पारसनाथ ने कहा कि जिस शादी की बुनियाद ही झूठ पर…

10 months ago

83 के हो गये, कब रिटायर होंगे, शरद पवार को लेकर खुलकर बोले अजित, हमें आशीर्वाद दीजिए

अजित पवार ने एनसीपी सुप्रीमो शरद पवार पर निशाना साधते हुए कहा आप 83 साल…

10 months ago

सावन में धतूरे का ये महाउपाय चमकाएगा किस्मत, भोलेनाथ भर देंगे झोली

धतूरा शिव जी को बेहद प्रिय है, सावन के महीने में भगवान शिव को धतूरा…

10 months ago

वेस्टइंडीज दौरे पर इन खिलाड़ियों के लिये ‘दुश्मन’ साबित होंगे रोहित शर्मा, एक भी मौका लग रहा मुश्किल

भारत तथा वेस्टइंडीज के बीच पहला टेस्ट मैच 12 जुलाई से डोमनिका में खेला जाएगा,…

10 months ago

3 राशियों पर रहेगी बजरंगबली की कृपा, जानिये 4 जुलाई का राशिफल

मेष- आज दिनभर का समय स्नेहीजनों और मित्रों के साथ आनंद-प्रमोद में बीतेगा ऐसा गणेशजी…

10 months ago