New Delhi, Apr 25 : इस देश में तीन धर्मग्रंथ हैं जिनसे समाज और सत्ता रास्ता लेते हैं. रामायण, महाभारत और संविधान. रामायण और महाभारत ने भारतीय समाज के मानस और सामाजिकता को काफी हद तक नियमित-नियंत्रित किया है. आज भी इन दोनों धर्मग्रंथों का मंचन समूचे देश में होता है और रोजाना के आचार-व्यवहार में रामायण, महाभारत से उदाहरण रखे जाते हैं. आजाद हिंदुस्तान जिस धर्मग्रंथ से चलता है- वह हमारा संविधान है. इन तीनों ग्रंथों की रचना दलित समुदाय के नायकों ने की. रामायण की रचना वाल्मीकि ने की, महाभारत वेदव्यास ने रचा और संविधान तैयार करने में डा. अंबेदकर की सबसे बड़ी भूमिका रही.
महाभारत काल में राजा शांतनु ने मल्लाह ( दलित ) की पुत्री सत्यवती से शादी की, भीम ने आदिवासी कन्या से विवाह किया, वेदव्यास और विदुर (दासी पुत्री) का हस्तिनापुर में अपार सम्मान था. विदुर वेद-वेदांग के पारंगत विद्वान थे.
राम ने सबरी के जूठे बेर खाए, मल्लाह के पांव पखारे. ये घटनाएं बताती हैं कि हजारों साल पहले से सनातन समाज में दलित समुदाय के साथ अछूत वाला भाव नहीं रहा. सारी गांठ और जाति-गिरोहबंदी स्मृतियों के काल में हुई. फिर भी रैदास, कबीर, दादू जैसे बाद के संतों ने हिंदू समाज में बड़ा सम्मान कमाया. लेकिन आजादी के 70 साल बाद भी दलित, गैर बराबरी और भेदभाव के खिलाफ राजनीति और सत्ता का रंगमंच बना हुआ है.
नेता दलितों के यहां खाकर, उनके यहां ठहरकर ये बताते हैं कि सरकार या पार्टी समरस समाज का झंडा लेकर चल रही है.
देश की 30 करोड़ की आबादी आज भी वोट के लिहाज से हांकी जाती है. उतनी ही कमजोर और लाचार आबादी दूसरी जातियों में भी है- लेकिन उनकी पूछ-परख नहीं होती. सच ये है कि देश की नीतियां गरीब, कमजोर औऱ जरुरतमंद के आधार नहीं बनी बल्कि जाति और कौम के आधार पर बनती रहीं. राजनीति ने ही जाति औऱ कौम को जिंदा रखा औऱ राजनीति ने ही जाति और कौम को मारा भी.
तेरे वादे पे जिएं हम तो ये जान झूठ जाना
कि खुशी से मर न जाते गर ऐतबार होता.
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