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राज्यपाल के संवैधानिक पद पर पुनर्विचार की जरूरत- Urmilesh

मुझे लगता है, वक्त आ गया है, जब राज्यपाल के पद को पुनर्परिभाषित किया जाना चाहिए।

New Delhi, May 20 : भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 से 170 के बीच राज्यपाल के पद, उसके अधिकार और कर्तव्य के बारे में ठोस प्रावधान दर्ज हैं। संविधान सभा में राज्यपाल के पद पर बहुत विशद चर्चा हुई थी। राज्यपाल की नियुक्ति को लेकर परस्पर विरोधी सुझाव और विचार आये थे। पर सबमें एक समानता थी कि सभी सुझावों में राज्यपाल के पद को संवैधानिक तौर पर बहुत महत्वपूर्ण और गरिमापूर्ण माना गया। लेकिन संविधान लागू होने के लगभग अड़सठ सालों बाद आज के भारतीय समाज, प्रशासनिक और विधायी संरचना में राज्यपाल पद की क्या छवि है? बीते कई दशकों से राज्यपालों की विवादास्पद छवि उभरती रही है। कांग्रेस-शासन का दौर रहा हो या आज का भाजपा-शासित दौर हो, देश के अनेक राज्यों के राज्यपालों ने संविधान से ज्यादा प्रतिबद्धता अपनी पूर्व पार्टी या अपनी नियुक्ति करने-कराने वाली सरकारों के शीर्ष पदाधिकारियों के प्रति दिखाई है। राज्यपाल पद पर ज्यादातर नियुक्तिय़ां बुजुर्ग होते नेताओं या अवकाश-ग्रहण करने वाले अफसरों की होती हैं। इनमें ज्यादातर अपने नियुक्ताओं के प्रति स्वामी-भक्ति दिखाते हैं। अनेक मौकों पर इससे संविधान के मूल्यों-प्रावधानों और राज्यपाल के फैसलों में गहरे विरोधाभास दिखते हैं।

इस वक्त भी ऐसा ही कुछ दिख रहा है। कर्नाटक मामले में सुप्रीम कोर्ट के शुक्रवार को दिए ऐतिहासिक फैसले के बाद वहां के राज्यपाल वजु भाई वाला की सियासी पक्षधरता साफ तौर पर उजागर हुई है। येदियुरप्पा सरकार को शनिवार को बहुमत मिल भी जाये तो राज्यपाल के फैसले, खासकर येदियुरप्पा को विश्वासमत के लिए15 दिनों का वक्त देने को किसी तरह जायज नहीं ठहराया जा सकता। राज्यपाल वजु भाई वाला जो कई दशक तक गुजरात में जनसंघ-भाजपा के वरिष्ठ नेता और राज्य सरकार में मंत्री रहे, इस पूरे प्रकरण में अपनी पक्षधरता छुपा नहीं सके। बल्कि बड़े अमर्यादित ढंग से उन्होंने अपनी पूर्व-पार्टी के नेताओं के कहे अनुसार काम किया। सुप्रीम कोर्ट ने भी शुक्रवार को यह भी आदेश दिया कि कोई भी मनोनीत सदस्य( एंग्लो-इंडियन अल्पसंख्यक समुदाय से) विश्वास मत के दौरान सदन में मौजूद नहीं रहेगा।

सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद महामहिम राज्यपाल को अब क्या करना चाहिए? उनके दो बड़े आदेश में एक को सुप्रीम कोर्ट ने आज खारिज कर दिया, यानी 15 दिनों के बजाय येदियुरप्पा को अब शनिवार शाम 4 बजे विश्वास-मत लेना पड़ेगा। उनके दूसरे आदेश यानी येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाने के फैसले पर कोर्ट 10 हफ्ते बाद सुनवाई करेगा! सच पूछिए तो महामहिम राज्यपाल ने अपने अदूरदर्शितापूर्ण और पक्षधरता भरे फैसले से अपनी भद्द स्वयं ही पिटा ली। इस वक्त अनेक राज्यों में राज्यपाल के पद पर संघ-भाजपा की राजनीति में बरसों काम कर चुके नेता आसीन हैं। इनमें कई ऐसे अजीबोगरीब फैसले पहले ही कर चुके हैं। पूर्वोत्तर के एक राज्य के माननीय राज्यपाल तो संघी नेताओं की तरह संविधान से इतर जाकर राजनीतिक बयानबाजी करते रहते हैं। एक जमाने में कांग्रेसी पृष्ठभूमि के कई राज्यपालों ने भी अपने ऊटपटांग फैसलों से कुछ इसी तरह का माहौल पैदा किया था।

मुझे लगता है, वक्त आ गया है, जब राज्यपाल के पद को पुनर्परिभाषित किया जाना चाहिए। समाज और सियासत में व्यापक सहमति बने तो संविधान में संशोधन करके इस पद को ही खत्म कर देना चाहिए क्योंकि व्यावहारिक तौर पर राज्यपाल आज राज्यों में केंद्र के सूबेदार बन गये हैं! जहां तक नये मुख्यमंत्रियों के शपथ दिलाने आदि का सवाल है, हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश यह दायित्व निभा सकते हैं! राज्यपाल के अन्य कार्यभार के बारे में केंद्र और राज्य आपसी विमर्श से संवैधानिक कदम उठा सकते हैं! अगर इस पर सहमति नहीं बनती तो राज्यपाल का पद खत्म कर केंद्र और राज्य के बीच एक ओम्बुड्समैन जैसा पद सृजित किया जा सकता है, जो शहर के किसी कोने में दो बेड-रूम के घर में रहते हुए सिर्फ केंद्र और राज्य के बीच जरूरत के हिसाब से सेतु का काम करे! उसे राज्य सरकार के कामकाज में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं हो। चुनाव-बाद किसी दल को बहुमत नहीं मिलता तो सम्बद्ध हाईकोर्ट फौरन एक विशेष पीठ गठित कर नई सरकार के गठन के लिए राज्य प्रशासन को कानूनी दिशा निर्देश दे सकता है। शपथ दिलाने का दायित्व हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश संभाल सकते हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार उर्मिलेश के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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