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क्या बीजेपी बिहार में यह मानने को तैयार है ?

छोटे दलों को यह आशंका है कि बीजेपी उन्हें कम सीटें देगी। ज्यादा सीटें वह खुद लड़ेगी। इसलिए वे दबाव बनाने के लिए बयानों के तलवार भांजे जा रहे हैं।

New Delhi, Jun 05 : बिहार में चेहरे को लेकर रोचक राजनीतिक जंग छिड़ी हुई है। यह जंग एनडीए के सहयोगी दल बीजेपी और जेडीयू के बीच है। लोकसभा चुनाव की तिथि जैसे जैसे नजदीक आ रही है, इस प्रकार की कई राजनीतिक पैतरेबाजी अभी देखने को मिलेगी। दरअसल यह सारी कवायद सीटों की हिस्सेदारी को लेकर है। छोटे दलों को यह आशंका है कि बीजेपी उन्हें कम सीटें देगी। ज्यादा सीटें वह खुद लड़ेगी। इसलिए वे दबाव बनाने के लिए बयानों के तलवार भांजे जा रहे हैं। जेडीयू मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का चेहरा आगे कर अपना दावा ठोक रही है। यह स्वाभाविक भी है। दरअसल जेडीयू नीतीश कुमार की छवि भुनाना चाहती है।

रविवार को नीतीश कुमार के साथ लंबे चिंतन -मनन के बाद पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता पवन वर्मा ने मीडिया को बताया था कि बिहार में जेडीयू बड़े भाई की भूमिका चाहती है। साथ ही नीतीश कुमार के चेहरे पर चुनाव लड़ा जाना चाहिए। पिछले चुनाव में जेडीयू बीजेपी से अलग थी। अब उसकी चिंता यह है कि बीजेपी -एलजेपी और आरएलएसपी के बीच बंटी सीटों में अपना हिस्सा कैसे हासिल करे ?
मंशा साफ़ है। पार्टी चाहती है कि चुनाव के पहले ही बिहार में एनडीए नीतीश को नेता मान ले, ताकि विधानसभा चुनाव के बाद वे सीएम पद के स्वाभाविक दावेदार माने जायें। उस समय कोई विवाद न हो। इसको लेकर बीजेपी के अंदर अलग-अलग राय है।

बीजेपी के नेता और केंद्रीय मंत्री रामकृपाल यादव का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश के नेता हैं। उनके नाम और चेहरे पर ही बीजेपी चुनाव लड़ेगी। इसमें कोई दो राय नही हैं। उन्होंने कहा कि कौन क्या बोलता है इससे कोई मतलब नही हैं। लेकिन उप मुख्यमंत्री सुशील मोदी इससे उलट राय रखते हैं। उनके मुताबिक देश के पीएम नरेंद्र मोदी हैं, लेकिन बिहार के नेता नीतीश कुमार हैं। बिहार में नीतीश के काम पर और मोदी के नाम पर वोट मिलेगा। उधर उपेंद्र कुशवाहा सीधा आरोप लगाते हैं कि एनडीए में संवाद और तालमेल की कमी है। सहयोगी दलों की पूछ नहीं है। रामविलास पासवान कभी एक कदम आगे तो कभी एक कदम पीछे करते रहते हैं।
सभी दलों की अपनी राजनीति और अपना स्वार्थं है। गठबंधन की राजनीति इसी तरह से चलती है। हाल के उप चुनाव में बीजेपी की हार के बाद एनडीए के सहयोगी दल ज्यादा मुखर हो गए हैं। उन्हें लगता है कि बीजेपी को दबाने का यही सही समय है।

मगर जिस तरह से चीजें सामने आ रही हैं, वह बचकाना है। क्या गठबंधन की राजनीति सार्वजानिक बयानों के सहारे आगे बढ़ेगी ? रणनीतियां कभी ऐसे तय होती हैं ? यह अगंभीर होती राजनीति का उदाहरण है। जो बातें मिल बैठ कर बंद कमरे में होनी चाहिए, वह सड़क पर हो रही है ! बेशक इसमें बीजेपी की ही कमी मानी जायेगी। सहयोगी दलों के साथ उसका जितना संवाद होना चाहिए था ,वह नहीं है। कहने को केंद्र की सरकार एनडीए की है, लेकिन वास्तव में वह बीजेपी की सरकार है। ठीक उसी तरह जैसे बिहार में नीतीश कुमार की सरकार है। निर्णायक भूमिका बड़ी पार्टी की होनी भीं चाहिए। क्योंकि सवाल तो उसी से पूछे जायेंगे। बड़े दलों की जवाबदेही ज्यादा है। क्या बीजेपी बिहार में यह मानने को तैयार है ?

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेख के निजी विचार हैं)
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