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सारी राजनीतिक पार्टियां एक सी हैं, छल-कपट और बदबू से भरी हुई

जातीय राजनीति के मामले में बस एक फर्क ज़रूर है कि बसपा , सपा नमक में दाल खाती हैं और कांग्रेस , भाजपा दाल में नमक ।

New Delhi, Jun 25 : भाजपा की भी वही प्राथमिकताएं हैं जो कांग्रेस की हैं , जो किसी भी पार्टी की हैं । सारा झगड़ा बस कुर्सी का है। चरित्र सभी का एक ही है । भाजपा भी मंहगाई , बेरोजगारी , भ्रष्टाचार के साथ-साथ मुस्लिम तुष्टिकरण करती है। आरक्षण की खीर खिला कर छाती फुला कर जातीय जहर की राजनीति करती है। झांसा कांग्रेस भी देती है , भाजपा भी देती है । बल्कि कहिए कि सारी राजनीतिक पार्टियां एक सी हैं । छल-कपट और बदबू से भरी हुई । किसी एक का भी चरित्र अलग नहीं है । सत्ता पाने और बचाने के लिए सभी चरित्रहीन बन जाती हैं ।

लेकिन बताती अपने को सती सावित्री ही हैं । गाल बजाने और जनता को छलने में कोई एक पार्टी पीछे हो तो कृपया बताएं । जैसे कांग्रेस कहती थी गरीबी हटाओ , आज तक नहीं हटी । भाजपा के अच्छे दिन का भी यही हाल है । पार्टी विथ डिफ़रेंस भी महज धोखा है ।

जातीय राजनीति के मामले में बस एक फर्क ज़रूर है कि बसपा , सपा नमक में दाल खाती हैं और कांग्रेस , भाजपा दाल में नमक । कहीं से भी उठा कर देखिए तो मुजरिम बस जनता है । लेकिन सभी राजनीतिक पार्टियां कातिल और मुंसिफ दोनों हैं । इन की नूरा कुश्ती चलती रहती है और जनता सचमुच में लड़ती रहती है । छल-कपट की मारी यह राजनीतिक पार्टियां बिल्लियों को रोटी बांटने में एक्सपर्ट बन कर बंदर के मानिंद हैं । आप कहेंगे कि वामपंथियों की बात नहीं की ।
कैसे करता भला ?

वह तो अब देश की राजनीति से ही बाहर हैं । राजनीतिक पार्टियों के मार्गदर्शक बने बैठे हैं । उन की भूमिका सिर्फ़ गाल बजाने के लिए रह गई है । कौन कम्यूनल है , कौन सेक्यूलर का सर्टिफिकेट देने के लिए वह अपने को परम योग्य मानते हैं । वास्तव में वामपंथी दलों की स्थिति पत्राचार विश्वविद्यालय सरीखी रह गई है । जमीन और जनता से उन का क्या लेना-देना । नारे , पोस्टर और गगन विहारी बातों से उन का इगो मसाज होता रहे , वह इसी में खुश हैं । थोड़ा बहुत दलित-फलित , थोड़ा अकलियत वगैरह यानी जनता की भाषा में कहें तो जय भीम , जय मीम की नफ़रत की खेती कर के उन का काम चल जाता है । चुनावी राजनीती से उन की अब कुट्टी होती जा रही है । सेमिनार , पोस्टर , एन जी ओ , फ़ेसबुक , ट्यूटर , ब्लाग वगैरह पर वह खूब हैं । बस यही उन की ज़मीन रह गई है , और ज़मीनी बात करने के लिए यही औजार ।

(वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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