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एंकर बनने की पाठशाला : “सेंसेशन और कंट्रोवर्सी बगैर कोई स्टोरी बन ही नहीं सकती”

प्लीज़, प्लीज़ ध्यान में रखें कि ये पोस्ट पत्रकारिता और एंकरिंग के बारे में है सोज़ की आस्थाओं के बारे में नहीं।

New Delhi, Jul 11 : आज फिर एंकरिंग पर चर्चा होगी, लेकिन इस बार व्यंग्य नहीं- सीधी और सपाट. पिछली पोस्ट पर एक सुधी फेसबुक मित्र डॉ राजेश अमोली की टिप्पणी ने ये पोस्ट लिखने को प्रेरित किया है. डॉ अमोली ने लिखा कि एंकरिंग पर आपने बात तो अच्छी लिखी है लेकिन अपनी बात को समझाने के लिए प्रो. सोज़ का उदाहरण दिया जो जंचा नहीं. शायद ये इसलिए कि हाल के दिनों में आम अवधारणा ये बनी है कि प्रो सोज़ कश्मीर की आज़ादी के समर्थक हैं. सोज़ कश्मीरी हैं और मुसलमान हैं. आजकल कांग्रेस में हैं. पहले नेशनल कांफ्रेंस में थे. ध्यान रखियेगा कि नेशनल कांफ्रेंस के राज़ में ही कश्मीर का वो संविधान बना, जिसकी प्रस्तावना में स्पष्ट लिखा है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है. पंद्रह दिन पहले कोई नहीं जानता था कि सोज़ अलगाववादी हैं. फिर अचानक वो अलगाववादी कैसे हो गए. ये हमारे महान एंकरों/ पत्रकारों की कृपा है.

प्लीज़, प्लीज़ ध्यान में रखें कि ये पोस्ट पत्रकारिता और एंकरिंग के बारे में है सोज़ की आस्थाओं के बारे में नहीं. इसलिए टिप्पणी करते हुए सोज़ के पक्ष या विरोध में टिप्पणी न करैं. उससे बहस डिरेल होगी. मैं सोज़ साहेब से मिला कई बार हूँ लेकिन मेरा उनसे कोई जाती राब्ता नहीं है. हमने कभी अकेले में चाय भी नहीं पी.
लेकिन अखबारों और टीवी पर चर्चाओं के बाद मैंने उनकी नई किताब अमेज़न से खरीद कर पढ़ी. कहीं नहीं लिखा है कि वो आज़ादी के समर्थक हैं. सोज़ ने कभी ये कहा भी नहीं. टीवी डिबेट में भी वो कह ये रहे थे कि “ कश्मीर के ज़्यादातर लोग आज़ादी चाहते हैं ये बात जनरल मुशर्रफ जैसे आदमी ने भी अपने फौजी जनरलों से कही थी और साथ में ये भी कहा था कि आज़ादी मुमकिन नहीं है. मैं मुशर्रफ की इस बात से इत्तेफाक रखता हूँ”. फिर ये बात कहाँ से फैली कि सोज़ कश्मीर की आज़ादी चाहते हैं.

हुआ ये कि जैसे ही टीवी डिबेट में पकिस्तान, आज़ादी, कश्मीर, इत्तेफाक शब्द आये हमारे महान एंकरों ने आव देखा ना ताव लट्ठ लेकर पिल पड़े. सामने एक कश्मीरी नेता था, मुसलमान था, आज़ादी पर बात कर रहा था और उसने इत्तेफाक शब्द भी बोला था. और क्या चाहिए. अब और कुछ सुनाने सुनाने की ज़रुरत ही नहीं है. वहां सीमा पर सुरक्षा बल आतंकियों को मार कर देश का सम्मान प्राप्त कर रहे हैं, तुम भी सामने वाले कश्मीरी को आतंकी डिक्लेयर करो और वाह वाही लूट लो.

मैंने सोज़ के दो इंटरव्यू देखे हैं – आजतक और एनडीटीवी पर. प्लीज ये दोनों इंटरव्यू फिर से देखें( यदि कोई साथी थोड़ा मेहनत करें और इनके लिंक यहां कमेंट बॉक्स में दे सकें तो मेहरबानी होगी. मैं आलसी हूँ और टेक्नोलॉजी में अपना हाथ कुछ तंग है). दोनों ही जगह ऐंकर्स कन्विंस्ड थे कि सोज़ अलगाववादी है. वो स्क्रीन पर ही एक आतंकवादी ढेर कर देना चाहते थे. वो कहता रह गया कि मेरी बात तो सुनो, आप समझ नहीं रहे हो ….लेकिन कोई सुने तब तो. प्लीज ये दोनों इंटरव्यू देखिये और फिर हो सके तो इस पोस्ट को दुबारा पढ़िए.
जेफरी आर्चर ने एक किताब लिखी है – द फोर्थ एस्टेट. इस उपन्यास का प्रोटागोनिस्ट एक अखबार मालिक है. रिपोर्टर उसके पास किसी स्टोरी की कॉपी लेकर जाता है तो वो उसे ज्ञान देता है: “कनफ्लिक्ट इज़ द एसेंस ऑफ़ ए स्टोरी…कनफ्लिक्ट नहीं है तो पैदा करो…. सेंसेशन और कंट्रोवर्सी बगैर कोई स्टोरी बन ही नहीं सकती”. तीस साल पहले लिखा गया ये सूत्र हमारे साथियों ने ताबीज़ बनाकर पहन लिया लगता है.
(मित्रों ये चर्चा एंकरिंग/ पत्रकारिता पर है सोज़ पर नहीं)

(वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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