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‘वाजपेयी जी राजनेता से पहले कवि और पत्रकार भी थे, और यक़ीनन सच्चे कवि और पत्रकार थे’

आज के मौजूदा समय में वाजपेयी जैसे विराट व्यक्तित्व के नेता की कमी बहुत खलती है. वह चाहे सत्ता में रहे या विपक्ष में।

New Delhi, Aug 16 : अटलबिहारी वाजपेयी जिस राजनीतिक विचारधारा से आते थे, उससे तमाम मूलभूत विरोध के बावजूद निस्सन्देह वह हमारे समय की राजनीति में मर्यादा और राजधर्म को बनाये और बचाये रखने के लिए प्रयत्नशील रहनेवाले विरले राजनेता थे. वह भी ऐसे समय में जब राजनीति में सारी मर्यादाएँ टूट रही हों. यह अलग बात है कि राजधर्म की उनकी चिन्ताओं को उनके परिवार ने न केवल तब अनसुना कर दिया, जब वह प्रधानमंत्री थे, बल्कि उन्हें मुखौटा तक कह कर क्या जताने की कोशिश की गयी, यह किसी से छिपा नहीं है.

इसका कारण यही था कि अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं के बावजूद वाजपेयी जी शायद अपने समय के सबसे बड़े समन्वयवादी राजनेता थे, जिसके लिए समाज के हर वर्ग में उन्हें बेहद सम्मान से देखा जाता था और देखा जाता रहेगा. कल्पना कीजिए कि एनडीए की मौजूदा सरकार की कमान आज अगर वाजपेयी जी के हाथों में होती, तो क्या तब भी देश में ऐसा ही ज़हरीला माहौल होता, क्या किसी मंत्री, राज्यपाल या छोटे-बड़े नेता की हिम्मत होती कि वह घृणा फैलानेवाले और भड़कानेवाले बयान दे देता. वाजपेयी जी ऐसे तत्वों को एक दिन भी बर्दाश्त नहीं करते, यह बात मैं पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ. सद्भाव और समन्वय उनकी राजनीति का, उनके जीवन का मूलमंत्र था. ‘सबका साथ’ उनका कर्मयोग था, न कि महज़ एक चुनावी नारा और जुमला.

वाजपेयी जी राजनेता से पहले कवि और पत्रकार भी थे. और यक़ीनन सच्चे कवि और पत्रकार थे. निर्भीक और स्वतंत्र मीडिया की बात भी उनके लिए केवल कथनी नहीं थी, बल्कि वह दिल से उसे मानते थे. मुझे याद है कि डीडी मेट्रो पर उन दिनों ‘आज तक’ की 20 मिनट की बुलेटिन हुआ करती थी. वाजपेयी जी जब पहली बार प्रधानमंत्री बनने जा रहे थे, तो उनके शपथ ग्रहण की पूर्वसंध्या पर हमारे सहयोगी स्वर्गीय अजय चौधरी ने उनका पहला इंटरव्यू किया. उस इंटरव्यू में बाक़ी बातों के अलावा उन्होंने ‘आज तक’ के लिए एक अनमोल बात कही. उन्होंने कहा कि सोने से पहले जब तक ‘आज तक’ न देख लूँ, खाना हज़म नहीं होता.

इसी विषय पर जब आज मेरी बात अपने एक और पुराने सहयोगी Mrityunjoy Kumar Jha से हो रही थी तो उन्होंने मुझे याद दिलाया कि वाजपेयी जी तो ‘आज तक’ को इतना पसन्द करते थे कि प्रधानमंत्री के तौर पर जब वह विदेश भी जाते तो उनके कमरे में ‘आज तक’ दिखे, इसकी विशेष व्यवस्था की जाती थी.
वाजपेयी जी मीडिया की आलोचनाओं, व्यंग्य और चुटकियों से कभी नाराज़ नहीं हुए. मृत्युंजय एक और क़िस्सा बताते हैं कि करगिल युद्ध के बाद के दौर में जब क्वालालम्पुर में गुटनिरपेक्ष देशों के (NAM) सम्मेलन में परवेज़ मुशर्रफ़ और वाजपेयी जी दोनों मिल रहे थे, तो ‘आज तक’ ने उसकी कवरेज के लिए जो शीर्षक चुना, वह था “नाम गुम जायगा.” वहाँ जब मृत्युंजय से वाजपेयी जी का सामना हुआ तो हँसते हुए बोले, देखिए यह चला रहे हैं नाम गुम जायगा!
आज के मौजूदा समय में वाजपेयी जैसे विराट व्यक्तित्व के नेता की कमी बहुत खलती है. वह चाहे सत्ता में रहे या विपक्ष में, उन्होंने राजनीति में संयम, सन्तुलन, समन्वय और लोकतांत्रिक मर्यादाओं की हर क़ीमत पर रक्षा की.

शत्-शत् नमन. विनम्र श्रद्धाँजलि.

(वरिष्ठ पत्रकार कमर वहीद नकवी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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