New Delhi, Dec 08 : जरा सोचिये, हाईकोर्ट के पास कोई सड़क जाम करता और उस जाम के चलते जजों को कोर्ट खत्म होने के बाद भी कोर्ट में ही रूकना पड़ता तो क्या होता !
मेरा अनुभव कहता है कि जलजला सा आ जाता। मुख्य सचिव से लेकर तमाम आला अधिकारी हाथ जोड़े कोर्ट रूम में न्यायाधीशों की फटकार सुन रहे होते। इस स्थिति के लिए कोर्ट तरह-तरह के विशेषणों से शासन को विभूषित करता। जिम्मेवारी तय करने की बात होती। जाम लगानेवालों को गिरफ्तार करने का निर्देश दिया जाता। वगैरह-वगैरह ।
5 दिसंबर को पटना हाईकोर्ट के पास बेली रोड को वकीलों ने पूरे 4 घंटे तक जाम रखा। पूरे शहर की यातायात व्यवस्था अस्त-व्यस्त हो गई थी। स्कूली बच्चे जाम में फंसे सिसकते रहे।जाम हटाने आई पुलिस को धकेल कर हटा दिया गया। ‘काले कोर्ट’ के खौफ से पुलिस तमाशबीन बनी रही। वकील अपने साथी वकील की दिन-दहाड़े हत्या से गुस्से में थे।
हाईकोर्ट की यह तत्परता और संवेदना काबिले तारीफ है। काश! ऐसी ही तत्परता और संवेदना राजधानी पटना और राज्य में होनेवाली हत्या की अन्य घटनाओं में भी नजर आती।
लेकिन ऐसा होता नहीं दिखता। कोर्ट के सामने जाम पर कोर्ट का मौन कई सवाल खड़े करता है। क्या सड़क जाम करना कानून संगत है? इसके पूर्व कई बार कोर्ट जाम के खिलाफ कठोर रुख अपना चुका है। फिर 5 दिसंबर के जाम पर खामोशी क्यों? जैसे हत्या पर अधिकारी तलब किये गये वैसे जाम करने वालों को क्यों नहीं तलब किया गया? क्या सिर्फ इसलिए जाम करनेवालों के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई कि वे वकील थे ? कल अगर दूसरे संगठन भी कोर्ट के पास जाम कर न्यायाधीशों को न निकलने दें, तो क्या उनके प्रति भी कोर्ट का यही रवैया रहेगा? इससे तो अराजकता फैल जायेगी।
मेरी राय में इस पूरे प्रकरण से कोर्ट की और वकीलों की प्रतिष्ठा गिरी है। उनका सम्मान कम हुआ है। पूरी कार्रवाई में एक तरह का पक्षपात नजर आता है। कोर्ट और वकीलों से ऐसी कार्रवाई की उम्मीद समाज को नहीं है। न्याय के मंदिर को अन्याय के खिलाफ दिखना चाहिए, पक्ष में नहीं।
(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार है)
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