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Opinion – कुनबों की राजनीति करने वाले नेता अगर संकीर्ण सोच से नही उबरेंगे तो उन्हें ही कठिनाई होगी

जिस समय लालू यादव का जलवा उफान पर था और अपनी जातिवादी राजनीति के आगे वे किसी को गदानते भी नही थे तभी एक पत्रकार मित्र ने कहा था कि इनकी मौत बहुत दर्दनाक होगी।

New Delhi, Apr 22 : नरक में भी ठेला ठेली —- इस देश मे जाति को लेकर इतना विरोधाभासी स्थितियां है कि आप कहाँ क्या बोलें , सोचें या करें यह समझना मुश्किल है । अगर किसी को चमार , डोम , दलित , अहीर , पिछड़ा , पासी , कुम्हार , कुर्मी , कोयरी , यादव , दुसाध , बजनिया जैसे जातिसूचक शब्द बोल दे तो वितंडा खड़ा हो जाये ।लेकिन राजनेता इन शब्दों के दम पर न केवल चुनाव लड़ते हैं बल्कि गर्व महसूस करते हैं या गर्व महसूस करने का स्वांग करते हैं । मायाबती खुद को दलित कहकर अपना महिमामंडन कराती है। रामबिलास पासवान मायावती से इस बात पर कंपीटिशन करते हैं कि मैं बड़ा दलित ।

बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माझी कहते मैं तो महादलित । मुलायम भरी महफिल में खुद को ओरिजिनल पिछड़ा कहलाना पसंद करते है तो लालू के बेटे अपने पिता को पिछड़ों का सबसे बड़ा नेता कहते हुए नही अघाते । शायद दक्षिण में भी पिछड़ा होना गर्व का विषय है। उपरोक्त जातिसूचक शब्दों का उपयोग कोई आम आदमी करे तो नॉन बेलेबल मुकदमा हो जाये । नेता लोग बोलें तो अमृतवाणी । मीडिया के भकचोंधर लोग भी फलाना दलित तो फलाना पिछड़ा करके ही उँगलियाते रहते हैं । देश मे कोई दलित आंदोलन या पिछड़ा आंदोलन नही चल रहा है कि किसी मसीहा की जरूरत हो। मायावती ने कितने दलितों को आबाद किया है , पासवान ने कितने महादलितों का उत्थान किया है , मुलायम और लालू केवल अपने कुनबा को खरबपति बनाने में लगे हैं ।

लेकिन जाहिल जनता अपनी गुरबत का अक्स इन ढोंगियों में देखती है । पढ़े लिखे और चालाक लोग तो अपना पेट पालने के लिए इनके पीछे हो लेते हैं लेकिन जो निष्पाप और निस्वार्थ लोग है पता नही वे इनके आडम्बर से क्यों भय खाते हैं । मैंने एक बार एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी से पूछा था कि ये अनपढ़ या आधे पढ़े लिखे , अहंकारी नेताओ की डांट और गालियां आपलोग बर्दाश्त कैसे करते हैं जबकि आप बौद्धिक और सामाजिक स्तर पर उनसे काफी ऊंची हैसियत रखते हैं ? उस वरिष्ठ अधिकारी ने देश के लोकतंत्र को आधा अधूरा बताते हुए कहा था कि हम अधिकारी मानकर चलते हैं कि नेताओ की चिरकुटई को बर्दाश्त करना भी उनकी ड्यूटी में शामिल है। सचमुच नेताओ की हैसियत इस देश मे विधाताओं जैसी है । और अगर वे पिछड़े दलित या अकलियत के नेता हैं तो उनके समर्थक बेहद उग्र मिलेंगे और मनमाफिक नही होने पर आपको गाली गलौज बड़े हक़ के साथ कर सकते हैं ।

आपकी विद्वत्ता , आपका व्यक्तित्व , आपकी ईमानदारी , आपका बड़प्पन गया तेल लेने । जिस समय लालू यादव का जलवा उफान पर था और अपनी जातिवादी राजनीति के आगे वे किसी को गदानते भी नही थे तभी एक पत्रकार मित्र ने कहा था कि इनकी मौत बहुत दर्दनाक होगी। ईश्वर लालू यादव को चिरायु बनाये लेकिन फिलहाल उनकी जो हालत है वही कम दर्दनाक थोड़े है। मुलायम सिंह भी आखरी पारी में शरीरिक और पारिवारिक के साथ राजनीति में इतने लाचार हो गए हैं कि कई बार उनपर दया भी आती है । इसलिए कुनबों की राजनीति करने वाले ये नेता अगर संकीर्ण सोच से नही उबरेंगे तो उन्हें ही कठिनाई होगी । आज ही मैंने लिखा था — जैसी करनी वैसी भरनी , न माने तो करके देख । जन्नत भी है दोजख भी है ना माने तो मरके देख ।—
अंत मे सात साल पहले लिखी अपनी ही ग़ज़ल की दो पंक्तिया दोहराता हूँ —
” नादां जवानी का जमाना गुजर गया
आ गया बुढापा अब सुधर जाना चाहिए ”

(वरिष्ठ पत्रकार योगेश किसलय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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