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वंशवाद एक सच्चाई है और इसकी मुखालफत एक पिटा हुआ जुमला

कांग्रेस को अगर गांधी परिवार चलाता है, तो बीजेपी को संघ परिवार चलाता है। फिर भी दोनों पार्टियों में अब तक एक बुनियादी अंतर हुआ करता था।

New Delhi, May 24 : खबर है कि राहुल गांधी इस्तीफा देना चाहते हैं। मुझे समझ में नहीं आया कि किसे देना चाहते हैं और क्यों देना चाहते हैं? अगर मीडिया रिपोर्ट्स पर गौर करें तो राहुल अपना इस्तीफा कांग्रेस वर्किंग कमेटी में रखेंगे। क्या कांग्रेस वर्किंग कमेटी इसे स्वीकार कर लेगी?

ज़ाहिर है, नहीं करेगी, तो फिर इस घिसे-पिटे नाटक से हासिल क्या होगा? किरकिरी और ज्यादा होगी और राहुल खुद को नैतिकता के उस उच्चतम मानदंड पर खड़ा नहीं कर पाएंगे, जिसकी उम्मीद वे इस्तीफे की पेशकश से करना चाहते हैं।
पूरे प्रकरण में समझने वाली दो-तीन बाते हैं। पहली बात यह कि परिवारवाद इस देश में कोई राजनीतिक मुद्धा नहीं है। कांग्रेस ही नहीं बल्कि भारत के तमाम राजनीतिक दलों की संरचना पूरी तरह से अधिनायकवादी है।
कांग्रेस को अगर गांधी परिवार चलाता है, तो बीजेपी को संघ परिवार चलाता है। फिर भी दोनों पार्टियों में अब तक एक बुनियादी अंतर हुआ करता था। बीजेपी कांग्रेस के मुकाबले लोकतांत्रिक हुआ करती थी। वहां अध्यक्ष बदला जाता था और मुख्यमंत्री चुनते वक्त विधायकों की सुनी जाती थी।

लेकिन न्यू इंडिया की बीजेपी अब वैसी ही है, जैसी 70 या 80 के दशक में कांग्रेस पार्टी हुआ करती थी। मान लीजिये अगर परिणाम बीजेपी के अनुकूल नहीं होता तो क्या मोदी और शाह की जोड़ी इस्तीफा देती?
कांग्रेस और बीजेपी से अलग अर क्षेत्रीय पार्टियों पर आयें तो वे फैमिली ओन्ड बिजनेस की तरह चल रही हैं। मायावती और ममता बनर्जी ने शादी नहीं की लेकिन मोह इस कदर है कि उन्होने अपने भतीजों को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया है।
वंशवाद एक सच्चाई है और इसकी मुखालफत एक पिटा हुआ जुमला। क्या गांधी परिवार के बिना कांग्रेस चार दिन भी चल पाएगी? मध्य-प्रदेश और राजस्थान के उदाहरण से समझिये जहां के ताकतवर नेता एक-दूसरे की जड़े खोदने में लगे हैं।

राहुल गांधी की नाकामी इस मायने में है कि वे मोदी के विकल्प के रूप में जनता के बीच अपनी स्वीकार्यता नहीं बना पाये। वे उस तरह के गठबंधन नहीं बना पाये जैसे 2004 में सोनिया गांधी ने बनाये थे।
फिर भी इस बात में कोई शक नहीं है कि नीतियों और कार्यक्रमों के मामले में कांग्रेस ने यह चुनाव बीजेपी के मुकाबले कहीं ज्यादा गंभीरता से लड़ा। दूसरी तरफ बीजेपी के लिए अपने मेनिफेस्टो या कामकाज पर बात करने की ज़रूरत ही नहीं थी क्योंकि उनके पास मोदी थे।
मैं राहुल गांधी को स्वभाविक राजनेता नहीं मानता हूं। लेकिन मेरे लिए यह बहुत साफ है कि पप्पू नहीं हैं। पिछले डेढ़ साल में वे एकमात्र विपक्षी नेता रहे हैं, जिन्होने बीजेपी और आरएसएस से खुलकर लड़ाई मोल ली है।
वैसे मैं अमेठी में उनकी हार से संतुष्ट हूं। उन्हें यह समझना होगा कि सत्ता की राजनीति के डगर पर हर कदम मुश्किल इम्तिहान होते हैं। कामयाबी की उम्मीद तभी जिंदा रह पाएगी जब वे नतीजों से बेपरवाह आगे चलते जाने की हिम्मत दिखाएंगे। क्या राहुल गांधी ऐसा कर पाएंगे?

(वरिष्ठ पत्रकार राकेश कायस्थ के फेसबुक वॉल  से साभार, ये लेखक के निजी विचार  हैं)
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