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कम्युनलिज्म की आड़ में हिन्दुओं से दूरी!

मोदी दरअसल 2014 में ही हर दल के लिए चुनौती बन गए थे, लेकिन कोई भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं था।

New Delhi, May 27 : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सफलता के झंडे गाड़ दिए हैं। इस लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों ने 352 सीटें जीती हैं, इनमें से 306 तो अकेले भाजपा की हैं। भाजपा स्वयं भी इस आशातीत सफलता से भौंचक है। उसे भी इतनी छप्परफाड़ जीत की उम्मीद नहीं थी। भले ही भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ‘अबकी बार, तीन सौ पार’ का नारा देकर अपने पार्टी कार्यकर्त्ताओं का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करते रहे हों, लेकिन अन्दर ही अन्दर वे भी हिले हुए थे। पांच साल की एंटी-इन्कम्बैंसी के चलते वे भी सशंकित थे। लेकिन जनता के मन का अंदाज़ किसी को नहीं होता। हर स्वतंत्र पर्यवेक्षक बस यही कहते रहे, कि मोदी की अंडरकरेंट तो है। लेकिन यह अंडरकरेंट इस तरह से हज़ारों वाट का जबरदस्त “थंडर” है, यह कोई नहीं समझ सका था। ज़ाहिर है, यह जीत मोदी की नीतियों से कहीं ज्यादा मोदी-विरोधियों की गलत रणनीति को स्पष्ट करती है। खासकर देश के लेफ्ट लिबरल बुद्धिजीवियों की पोंगा बुद्धि को। इन लोगों ने एक ऐसा माहौल बना दिया था, जिसके चलते लोग मोदी-विरोधी दलों और उनकी नीतियों से दूर होते चले गए। इन लोगों ने जातिवाद और कम्युनलिज्म की आड़ में हिन्दुओं और हिंदू धर्म को गालियाँ देनी शुरू कर दीं। हर बात में हिन्दुओं को कोसा जाने लगा। हिंदू होने का मतलब मुस्लिम विरोधी हो जाने का ठप्पा था। इन लोगों ने यहाँ तक कह डाला, कि हिंदू तो मोदी के अंध भक्त हैं। नतीजा यह हुआ कि वृहद् हिंदू समाज अन्दर ही अन्दर स्वतः मोदी समर्थक होता चला गया। अधिकांश बहुसंख्यक जनता भारतीय जनता पार्टी और खासकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पक्ष में लामबंद होने लगी। इसी का नतीजा है, भाजपा की और मोदी की यह भारी-भरकम जीत।

वर्ष 2014 में जब कांग्रेस को जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा था, तथा उसे मात्र 44 सीटें मिली थीं, तब हार की समीक्षा के लिए पूर्व केंद्रीय मंत्री ए.के.एंटोनी की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई थी। इस कमेटी ने कहा था, कि वृहद् हिंदू समाज की उपेक्षा कांग्रेस को भारी पड़ी है। ए.के.एंटोनी ने जून, 2014 में चेताया था, कि ‘कांग्रेस की धर्म निरपेक्ष होने की जो साख थी, उसमें अब लोगों का विश्वास नहीं है। कांग्रेस मुस्लिम पक्षी नजर आ रही है।’ लेकिन कांग्रेस ने सबक नहीं लिया। वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर कहते हैं, कि 26 नवंबर, 2008 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले पर अजीज बर्नी ने जो पुस्तक लिखी है, उसका नाम है ‘26 .-11 आर.एस.एस.की साजिश; इस पुस्तक का लोकार्पण कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने 2010 में किया था। पुस्तक के नाम से ही यह स्पष्ट है कि उसमें क्या लिखा गया है। दूसरी ओर, कुछ साल पहले पाकिस्तान के पूर्व प्रधान मंत्री नवाज शरीफ ने अंग्रेजी दैनिक ‘डॉन’ के साथ बातचीत में कहा था कि ‘हमारे यहां हथियारबंद गुट मौजूद हैं। आप उन्हें ‘नॉन-स्टेट’ एक्टर कह सकते हैं। क्या ऐसे गुटों को बॉर्डर क्रास करने देना चाहिए कि वे मुम्बई जाकर डेढ़ सौ लोगों को मार दें? कोई समझाए मुझे। हम इसी कोशिश में थे। हम दुनिया से कट कर रह गए हैं। हमारी बात नहीं सुनी जाती।’ इसके बावजूद कांग्रेस ने न तो एंटोनी कमेटी की सलाह पर गौर न किया और न ही पाकिस्तान के खुद के स्पष्टीकरण पर गौर किया। और पिछले साल मई में कांग्रेस ने इन्हीं दिग्विजय सिंह को मध्य प्रदेश कांग्रेस कमेटी की समन्वय समिति का प्रमुख बना दिया। और 2019 की लोकसभा के लिए उन्हें भोपाल से टिकट दे दिया। सुरेन्द्र किशोर के अनुसार दिग्विजय सिंह को इतना मान देकर कांग्रेस हाई कमान ने एंटोनी की सलाह को एक तरह से ठुकरा ही दिया था। संभवतः कांग्रेस को यही लगता रहा, कि एनडीए की केंद्र सरकार को लोकसभा चुनाव में हरा देने के लिए गैर एनडीए दलों का गंठजोड़ ही पर्याप्त है। अन्य किसी तरह के सुधार की कोई जरूरत नहीं है। क्या कांग्रेस का यह आकलन सही था?

मोदी दरअसल 2014 में ही हर दल के लिए चुनौती बन गए थे, लेकिन कोई भी यह स्वीकार करने को तैयार नहीं था। वे मोदी को एक चाय वाला, संघ प्रचारक या राजनीति का नौसिखुआ खिलाड़ी ही समझते रहे। उनको लगता रहा, कि अरे गुजरात से आया यह आरएसएस का पूर्व प्रचारक भला इतने सशक्त और पुराने खुर्राट राजनेताओं का क्या बिगाड़ पाएगा? अपने इसी अहंकार में वे न तो नरेंद्र मोदी को समझ पाए, न अमित शाह की क्षमताओं को। नतीजा सामने है। अपने देश कि जनता का मिजाज़ अलग है। यहाँ कभी किसी को अपशब्द बोलकर, उसे खुल्लम-खुल्ला हीन बता कर आप “नायक” नहीं बन सकते। कांग्रेस के अन्दर के अल्ट्रा लेफ्ट नेताओं ने यही किया। वे हिन्दुओं को सरेआम गालियाँ देने लगे। मणिशंकर अय्यर तो थे ही, पी. चिदंबरम भी उसी हवा में बह गए। अब परिणाम प्रत्यक्ष है। अगर नहीं समझा गया, तो आगे मोदी की चुनौती और प्रचंड होती जाएगी। खासकर कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय राजनीतिक दल के लिए यह पराभव बहुत खतरनाक है। क्षेत्रीय दलों को केंद्र की सत्ता पाने की न तो ज्यादा हवश होती है, न उनके लिए अकेले संभव होता है। लेकिन कांग्रेस के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है। लगातार दो लोकसभा में विपक्ष का नेता बन पाने तक की उसकी हैसियत नहीं रह गई है, तो कैसे वह आगे सत्ता में वापसी की आस लगाएगी!

इसलिए कांग्रेस को फिर से सबको लेकर चलने वाला एक समावेशी राजनीतिक दल बनना पड़ेगा। कांग्रेस में शुरू से ही लेफ्ट और राईट दोनों कोटि के नेता रहे हैं। लेकिन अध्यक्ष ने सदैव संतुलन बनाए रखा। अपने इसी गुणों के कारण इस देश में कांग्रेस का अक्षुण्ण राज रहा है। यह देश बुद्ध और गांधी का है। यहाँ एक ही तरह की विचारधारा कभी नहीं पनपी। यहाँ तक कि हिंदू सनातनी समाज में ईश्वर भी एक नहीं है। इसकी यह विविधता ही इसकी विशेषता रही है। उसे बिगाड़ने का मतलब है, देश को गलत दिशा में ले जाना। अतः कांग्रेस को इस एक पक्षीय नज़रिए से बाहर आना होगा। इसमें जरा भी चूक बहुत महंगी पड़ सकती है। हिंदू यहाँ 80 प्रतिशत हैं, और पहले भी रहे हैं। लेकिन उनको चिढ़ाने का काम किसी ने नहीं किया, और जब किसी ने ऐसा किया तो उसे इसके परिणाम भी भुगतने पड़े। कांग्रेस के पास बहुत समय है, उसे एक ऐसी लाइन लेनी चाहिए, जो उसके समावेशी चरित्र को ज़ाहिर करे। यही उसके लिए उपयुक्त होगा। उसे स्वीकार करना चाहिए, कि कुछ भी हो वह न तो किसी समुदाय को उत्तेजित करे, न किसी की अनदेखी करे। उसे सरकार के कामकाज पर एक समीक्षक की तरह नज़र रखनी चाहिए, किसी ईर्ष्यालु व्यक्ति की तरह नहीं।

(वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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