New Delhi, Jul 21 : दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के निधन पर बहुत अफसोस है। सही मायनों में अंतिम समय तक सक्रिय रहीं। दिल्ली की राजनीति की बहुत कद्दावर शख्सियत थीं शीला दीक्षित। 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीं और दिल्ली के विकास में, उसका रंग-रूप निखारने में , कायाकल्प करने में उन्होंने यादगार काम किया। दिल्ली में कॉमनवेल्थ खेलों की तैयारियों में शीला दीक्षित के कुशल प्रबंधन और प्लानिंग के चलते दिल्ली की और ख़ासकर पूर्वी दिल्ली की सूरत बदल गई।
राजनीतिक तौर पर शीला दीक्षित की एक बड़ी ख़ासियत थी पार्टी के भीतर और बाहर अपने विरोधियों को साधने की उनकी चतुराई।
बहुत गरिमामय, सादगीभरा और सौम्य व्यक्तित्व। ‘बेटा, बेटा’ कह कर बात करती थीं। अब राजनीति से ऐसे नेताओं की पीढ़ी विदा हो रही है। तेजिंदर खन्ना से नहीं पटी और दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष रहे जेपी अग्रवाल से भी खट्टा मीठा चलता रहा लेकिन आज की राजनीति की तरह सार्वजनिक तौर पर कोई तीखी अभिव्यक्ति या कड़वाहट नहीं दिखी। बातचीत और व्यवहार के मामले में नरमी, सार्वजनिक समारोहों में सहजता से आम लोगों से घुल-मिल जाना उनकी पहचान थी। इतने सहज उपलब्ध नेता मिलना अब बहुत मुश्किल है। दिल्ली आज तक का वह शुरूआती दौर याद आ रहा है जब सीलिंग का हल्ला था, सियासत गरमाई हुई थी और शीला दीक्षित सबके निशाने पर थीं।
हम उनकी तीखी आलोचना करते थे लेकिन उन्होंने कोई कड़वाहट नहीं पाली न कभी किसी ख़बर को लेकर किसी तरह का दबाव रहा। हल्के-फुल्के मूड में शीला जी मिरांडा हाउस की पढ़ाई से लेकर दिल्ली की चाट के चटखारों और सिनेमा के शौक पर भी बेतकल्लुफी से बातें करती थीं। केंद्र की कांग्रेस सरकार के शासन में हुए घोटालों पर लोगों की नाराज़गी और कामनवेल्थ खेलों के दौरान भ्रष्टाचार के आरोपों की आंच मनमोहन सिंह से पहले 2013 के विधानसभा चुनावों में शीला दीक्षित तक पहुंची थी और उन्हें सत्ता गंवानी पड़ी थी। तीन बार की मुख्यमंत्री रहीं शीला दीक्षित ने तब भी सक्रिय राजनीति से नाता नहीं तोड़ा। हालांकि उसके बाद वह पुराना जलवा और रुतबा बरकरार नहीं रख पाईं।
विनम्र श्रद्धांजलि।
(वरिष्ठ पत्रकार अमिताभ श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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