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Blog: अफ़सरों का बोझ! जो टॉप पर आया, वह कलेक्टर और जो पिछड़ गया, वह नायब तहसीलदार

संभव है, कि वह अतिरिक्त जिला अधिकारी तक पहुँचते-पहुँचते रिटायर हो जाए. कलेक्टर बनने का अवसर उसे नहीं मिल पायेगा, क्योंकि वह आईएएस पोस्ट है. जबकि उसी के साथ उसी की तरह परीक्षा देकर जो अभ्यर्थी सीधे-सीधे डिप्टी कलेक्टर चयनित हुआ हो, वह सचिव तक तो पहुँच ही सकता है.

New Delhi, Sep 21: पिछले दिनों मुझे उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग की प्री और मेन की परीक्षाओं में पास हो चुके अभ्यर्थियों के एक मॉक इंटरव्यू के बोर्ड में बैठने का अवसर मिला. यह इंटरव्यू दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कोचिंग संस्थान ने आयोजित किया था. इसमें चार आईएएस अधिकारी और एक प्रोफ़ेसर के साथ अभ्यर्थी के सामान्य ज्ञान जांचने के लिए एक वरिष्ठ पत्रकार को भी बतौर एक्सपर्ट बुलाते हैं. वास्तविक इंटरव्यू का पैनल भी ऐसा ही होता है. इसमें हिस्सा लेने आए अभ्यर्थी भी हूबहू वास्तविक इंटरव्यू देने के नाईं ही हिस्सा लेते हैं.

ड्रेस, तैयारी और सजगता के लिहाज़ से भी. पीसीएस की परीक्षा में बैठने वाले सभी अभ्यर्थी अपनी पहली प्राथमिकता डिप्टी कलेक्टर (एसडीएम) की पोस्ट को देते हैं, इसके बाद डीएसपी (पुलिस उप अधीक्षक या पुलिस क्षेत्राधिकारी), फिर जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी से ले कर नगर पालिकाओं के अधिशाषी अधिकारी (ईओ) तक करीब 35 अधिकारी इन्हीं परीक्षाओं से गुजरते हैं. जो टॉप पर आया, वह कलेक्टर और जो पिछड़ गया, वह नायब तहसीलदार. एक नायब तहसीलदार को डिप्टी कलेक्टर बनने में करीब 15 वर्ष का समय तो लग ही जाता है. संभव है, कि वह अतिरिक्त जिला अधिकारी तक पहुँचते-पहुँचते रिटायर हो जाए. कलेक्टर बनने का अवसर उसे नहीं मिल पायेगा, क्योंकि वह आईएएस पोस्ट है. जबकि उसी के साथ उसी की तरह परीक्षा देकर जो अभ्यर्थी सीधे-सीधे डिप्टी कलेक्टर चयनित हुआ हो, वह सचिव तक तो पहुँच ही सकता है. यह एक अजीब तरह की परीक्षा है, जिसमें एक अभ्यर्थी तो नौकरशाही के शीर्ष तक पहुँचता है, दूसरा उसकी कल्पना तक नहीं कर सकता.

अंग्रेजों के समय से चली आ रही इस अफसरशाही के कारण कोई भी अधिकारी कभी भी जनसेवक नहीं बनता. वह बस अपनी सुविधाएं और अपनी सत्ता के विस्तार में ही लगा रहता है. पब्लिक से न उसका संपर्क होता है, और न ही वह बनाना चाहता है. यह नेता और अफसर को दोनों के लिए मुफीद है. दोनों मिल कर दोनों हाथ लूटो और पब्लिक के नसीब में है रोना. इस इंटरव्यू बोर्ड में बैठ कर जाना, कि जिले में अफसरशाही की इतनी पोस्ट हैं, जिनका कोई भी उपयोग शायद ही कोई राज्य सरकार, खासकर उत्तर प्रदेश की सरकारें कभी करती होंगी. मसलन जिला मद्यनिषेध अधिकारी, जिला कृषि अधिकारी, जिला पशुधन विकास अधिकारी, जिला उद्यान अधिकारी. एक नज़र से देखा जाए, तो ये बहुत ही महत्त्वपूर्ण पोस्ट हैं, पर इनके महत्त्व को लेकर कोई गंभीर नहीं है. न राज्य सरकार न ये खुद. जिलों में मद्य निषेध अधिकारी के दफ्तर आमतौर पर कलेक्ट्रेट में उस जगह होता है, जिधर पब्लिक टॉयलेट्स बनी होती हैं. जिनके आसपास चरसी और गंजहे लोटे रहते हैं. इन अधिकारीयों के लिए न कोई बजट होता है, न स्टाफ. जब ये जिलाधिकारी के पास अपना रोना लेकर जाते हैं, तो जिलाधिकारी इनसे बेगार लेने लगता है. मसलन इन्हें जनगणना अथवा बीएलओ की ड्यूटी पर लगा देता है. पूरे जीवन ये बेचारे वेतन लेते हैं, और अपने नसीब को रोते हैं. यह साल गांधी जी की डेढ़ सौवीं बरसी का है, मगर मद्य निषेध अधिकारियों को इस काम से वंचित रखा गया. जबकि इसमें उनकी उपयोगिता सर्वाधिक होती.

इसी तरह पशुधन विकास अधिकारी, जिसकी जगह अब जिला पशु चिकित्सा अधिकारी काबिज़ हैं, का उत्तर प्रदेश में कोई रोल नहीं है. उनका दफ्तर कम्पाउंडरों और चपरासियों के बूते चलता है. और पशु चिकित्सक जिला मुख्यालय में बैठ कर कुत्तों का इलाज़ करते हैं. इसके विपरीत हरियाणा में ये अधिकारी गाँव-गाँव जाकर गाय-भैंसों के कृत्रिम गर्भाधान के उपाय करते हैं. उत्तर प्रदेश में इन अधिकारियों को इसमें कोई इंटरेस्ट नहीं है. जिला कृषि अधिकारी का किसी जिले में शायद ही दफ्तर हो. न उनके पास बजट है, न किसानों की मीटिंग बुलाकर उन्हें चाय तक पिलाने की हैसियत. जिला मृदा संरक्षण अधिकारी. उत्तर प्रदेश के इटावा जिले में जब तक बीहड़ क्षेत्र था, तब तक तो इसकी उपयोगिता थी अब वहां पर यमुना किनारे के बीहड़ों को ठीक कर दिया गया है, इसलिए वहां पर भी अब इसकी कोई जरूरत नहीं है. बेहतर रहे कि राज्य सरकार मृदा संवर्धन के लिए किसानों को जागरूक करे और हर जिले में प्रयोगशालाएँ खोले. जिला समाज कल्याण अधिकारी के पास भी कोई काम नहीं है. तब ऐसी पोस्ट को बनाए रखने का क्या लाभ!
(वरिष्ठ पत्रकार शंभुनाथ शुक्ल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)

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