New Delhi, Oct 08 : रावण यानी दशग्रीव यानी लंकेश यानी दशानन यानी रक्षपति यानी लंकेश्वर यानी दशशीश यानी दशकंध यानी रक्षेन्द्र यानी दैत्येन्द्र …..
ऋषि पुत्र रावण। स्वर्ण लंका का राजा रावण । शिवभक्त रावण । कलाप्रेमी रावण । परम् बलशाली रावण ।सभी पुराण और वेदज्ञ रावण । तीर्थंकर रावण । बच्चों के लिए मैंने जरूरी औषधियों का अविष्कार किया । यानी अपने काल का पीडिएट्रिक्स डॉक्टर । इंद्रजाल , सम्मोहन और तंत्र का ज्ञाता मैं रावण । पूर्वजन्म में मैं भगवान विष्णु का द्वारपाल था । राम के विजय यज्ञ की पूर्णाहुति मैंने ही करवाई। ऐसा तब जब गुरु वृहस्पति ने रामेश्वरम के पास भगवान राम ने लंका विजय के लिए विजय यज्ञ की पूर्णाहुति कराने से मना कर दिया था । मैंने अपने पांडित्य की जिम्मेवारी की खातिर मेरी जान लेने को आतुर दुश्मन की भी इच्छा पूरी की । मैं राजनीति का ज्ञाता हूँ इसलिए भगवान राम ने भी लक्ष्मण को मुझसे राजनीति का पाठ पढ़वाया । ज्योतिष के अलावा कई ग्रंथ मैंने लिखे । ज्योतिष का प्राचीन ग्रंथ लाल किताब रावण संहिता का ही हिस्सा है । प्रसिद्ध वैद्य सुषेण मेरे राजवैद्य थे लेकिन लक्ष्मण की जान बचाने के लिए मैंने ही अनुमति दी। मेरे पुष्पक विमान के लिए चार हवाई अड्डे थे – उसानगोडा , गुरुलोपोथा , तोतुपोलाकंदा और वरियापोला । झारखंड के त्रिकूट पर्वत पर भी मैंने अस्थायी हवाई अड्डा बनवाया । ब्रम्हर्षि अंगिरा ने मेरे पुष्पक विमान की रचना की थी । भोग विलास वाले यक्ष संस्कृति के बरक्स मैंने रक्षा करने वाले रक्ष संस्कृति की स्थापना की।
मैं रावण हूँ । मैंने लंका का साम्राज्य बालिद्वीप ,सुम्बा , अंगद्वीप , मलयद्वीप , वराहद्वीप , शंखद्वीप ,कुशद्वीप , यवद्वीप और आंध्रालय तक फैलाया । आज के युग मे इन द्वीपो को इंडोनेशिया , मलेशिया , बर्मा और भारतवर्ष के कुछ दक्षिणी राज्य के रूप में जाना जाता है । जैन शास्त्रो में भी मुझे प्रति नारायण कहा गया है।जैन धर्म के 64 शलाका पुरुषों में मैं भी शामिल हूँ । जैन पुराणों के अनुसार मै आगामी चौबीसी में तीर्थंकर भगवान महाबीर की तरह चौबीसवें तीर्थंकर की तरह मान्य होऊंगा । प्राचीन जैन तीर्थस्थल पर मेरी मूर्तियां स्थापित है।
मेरे हंता राम भी मुझसे प्रेम करते थे ।
“अहो रूपमहो धैर्यमहोत्सवमहो द्युति:।
अहो राक्षसराजस्य सर्वलक्षणयुक्तता॥ ”
मतलब , रावण को देखते ही राम मुग्ध हो जाते हैं और कहते हैं कि रूप, सौन्दर्य, धैर्य, कान्ति तथा सर्वलक्षणयुक्त होने पर भी यदि इस रावण में अधर्म बलवान न होता तो यह देवलोक का भी स्वामी बन जाता।”
मैंने शिष्टाचार और ऊँचे आदर्श वाली मर्यादायें खुद ही तय किये। राम के वियोग में दुःखी सीता से मैंने साफ साफ कहा था “हे सीते! यदि तुम मेरे प्रति काम-भाव नहीं रखती तो मैं तुझे स्पर्श नहीं कर सकता।” शास्त्रों के अनुसार वन्ध्या, रजस्वला, अकामा आदि स्त्री को छूना मना है इसलिए अपने प्रति अ-कामा सीता को स्पर्श न करके मैंने शास्त्रोचित मर्यादा का ही आचरण किया ।
पर्यावरण को लेकर कलियुग में काफी चिंता जाहिर किया जाता है । इसके प्रति तो मैं द्वापर में ही सतर्क था । वृक्षायुर्वेद शास्त्री मेरे दरबार मे थे जो पर्यावरण का संरक्षण करते थे – ” सर्वकाफलैर्वृक्षै: संकुलोद्यान भूषिता। ” इसके लिए मैंने अपने पुत्र को तैनात किया था। हमारे यहां रत्न के रूप में श्रेष्ठ गुप्तचर, श्रेष्ठ सलाहकार और कुशल संगीतज्ञ भी तैनात थे।
अपने यहां श्रेष्ठ सड़क प्रबंधन था ।इसके लिए विशेषज्ञ तैनात थे जो हाथी , घोड़े, रथों के संचालन को नियमित करते थे। जिस कलियुग में पानी को लेकर युद्ध के आसार लगते हैं उसकी भनक मुझे पहले से थी। हमने जल प्रबंधन पर पूरा ध्यान दिया । नदियों के पानी को बांधने की कोशिश की । कैलास पर्वतोत्थान ‘माउंट लिफ्ट’ प्रणाली का शायद पहला उदाहरण है।
मैंने जाति – उपजाति का बंधन तोड़ कर एक ही छतरी में सभी को लाने की कोशिश की । सुर ,असुर , दैत्य , दानव , गंधर्व , नाग , नर , वानर , आर्य , अनार्य सबको एक ही सूत्र में जोड़ने के लिए इंद्र के सामने प्रस्ताव रखा लेकिन इंद्र नही माने । कलियुग में इसका असर आप देख रहे हैं ।
मैं रावण हूँ । आज तुम मेरे पुतले में आग लगाकर खुश होते हो लेकिन मेरी आत्मकथा पढ़कर खुद ही फैसला करो कि क्या मेरी मृत्यु तुम्हे खुशी देगी । मेरी मृत्यु का कारण मेरे अभिमान को बताया जाता है । क्या मैं खुद पर गर्व करने लायक पात्र नहीं हूँ ?
और अंत मे : राम के प्रति जितनी तुम्हारी श्रद्धा है उससे थोड़ा भी कम श्रद्धा मेरी भी नही है । इसलिए यह सब नाटक छोड़ो और मुझे मेरा अधिकार और मेरा सम्मान वापस करो।
जय श्री राम , जय श्री लंकेश ।
(वरिष्ठ पत्रकार योगेश किसलय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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