New Delhi, Oct 09 : कह सकते हैं कि इस बार बरसात ज्यादा हो गई, लेकिन यह कहना ठीक नहीं होगा कि इसी कारण पटना शहर का अधिकांश हिस्सा दस दिनों तक पानी में डूबा रहा। यह भी जान लें कि भले ही पंप लगाकर आवासीय क्षेत्रों से पानी निकाला गया, पर इस महानगर के आने वाले दिन बाढ़ के पानी की त्रासदी से भी ज्यादा भयावह होने वाले हैं।
जिस शहर ने गंगा जैसी नदी को हड़प लिया, जहां दशकों से कूड़े का माकूल निस्तारण न कर उसे शहर की सीवर लाइनों में दबाया जा रहा हो, जहां चार हजार करोड़ से ज्यादा के सालाना बजट वाला स्थानीय निकाय हो और उसके पास शहर के ड्रैनेज सिस्टम का नक्शा तक न हो, वहां ऐसे जल प्लावन पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हां, इस बात पर क्षोभ जरूर होना चाहिए कि शिक्षा, संस्कृति, धर्म और आध्यात्म, साहित्य और विज्ञान में कभी दुनिया को राह दिखाने वाले शहर के लोग इस खतरे से अनभिज्ञ या बहुत कुछ उसे न्यौता देने वाले कैसे बन गए।
स्मार्ट सिटी परियोजना में शामिल पटना शहर देश का ऐसा पांचवां शहर है, जो सबसे तेजी से बढ़ रहा है। वर्ष 2001 से 2011 के बीच शहर की आबादी 24 फीसदी बढ़ी और अनुमान है कि उसके बाद के आठ वर्षो में इसका विस्तार तीस फीसदी की दर से हुआ। पटना कई नदियों से घिरा हुआ है- गंगा के विशाल विस्तार के किनारे तो यह शहर बसा ही है, इसके एक ओर पुनपुन है, तो सोन नदी भी कुछ दूर गंगा में मिलती है। जाहिर है कि बढ़ती आबादी को समाने के लिए जगह भी चाहिए थी।
समाज यह भूल गया कि नदियां भले ही कुछ दिनों के लिए अपना रास्ता बदल दें, लेकिन वह एक जीवंत इकाई है, जो अपना रास्ता, स्वभाव नहीं भूलती। शायद सरकार को यह अंदेशा भी था कि बीते दो दशकों के दौरान जो गंगा आज शहर से चार किलोमीटर दूर चली गई है, किसी दिन अपने घर पधार जाएगी। गंगा फिर से पटना के किनारे बहेगी। इसी साल अगस्त में गंगा को पटना के किनारे लाने के लिए राज्य सरकार ने व्यापक कार्ययोजना बनाई थी, जिसके तहत 234 करोड़ रुपये खर्च कर नदी की गाद निकालने का काम शुरू किया गया था।
योजना को 15 जून 2020 तक पूरा करने का लक्ष्य रखा गया। इस बार गंगा के साथ-साथ सोन और पुनपुन के जल ग्रहण क्षेत्रों में अंधाधुध बरसात हुई, नदियों का जल स्तर भी बढ़ा और उस पर बंधे बांधों के दरवाजे भी खोले गए। अब पटना के लोग तो गंगा के सूखे रास्ते पर कॉलोनी, सड़क सभी कुछ बना चुके थे और तेज बहाव में बहुत-सी गाद बह भी गई और इस तरह से पानी शहर के उन इलाकों में घुसा जो नदी की जमीन या ‘लो लाईन’ पर थे।
पटना में हर दिन लगभग एक हजार मीट्रिक टन कूड़ा पैदा होता है और नगर निगम की अधिकतम हैसियत बामुश्किल 600 मीट्रिक टन कूड़ा उठाने या उसका निबटारा करने की है। यह भी दुखद है कि निबटारे के नाम पर नदी के किनारे या उसकी जलधारा में उसे प्रवाहित कर देने का अघोषित काम गंगा को उथला बना रहा था। शहर के अघोषित गंदे पानी के 33 नाले भी गंगा में गिरते हैं। जब शहर में पानी भरने लगा, तो तीन-चार दिन तो प्रशासन को समझ ही नहीं आया कि किया क्या जाए। विडंबना है कि नगर निगम के पास शहर की नालियों के नेटवर्क का नक्शा वर्ष 2017 में गुम हो गया था। नक्शा नहीं होने के चलते निगम को न तो नालियों की सही-सही जानकारी है और न कैचपिट-मैनहोल की। किसी को मालूम नहीं, पानी किधर से निकलेगा।
महानगर में जहां पानी उतरा है, वहां बहुत सारा कचरा जमा है। इससे बड़े स्तर पर संक्रमण फैलने की आशंका है। जिस स्तर पर नदियों के प्रति बेपरवाही बरती गई, उसे देखते हुए प्रकृति ने अभी छोटा ही दंड दिया है।
(वरिष्ठ पत्रकार पंकज चतुर्वेदी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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