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Opinion – पटना को डूबाने के लिये सिर्फ कुछेक अधिकारी ही जिम्मेदार हैं?

बेशक नाले-नालियों समेत शहर को साफ सुथरा और सुनियोजित करना नगर निगम का काम है। नगर निगम पर निगरानी रखना नगर विकास विभाग का काम है।

New Delhi, Oct 19 : ‘ऊपर से फिट फाट नीचे से मोकामा घाट ‘ यह कहावत बचपन से सुनता आ रहा हूं। पटना जल जमाव मामले में यह कहावत बिल्कुल फीट बैठती है। लेकिन क्या यह घटना सिर्फ पटना नगर निगम की नाकामी है? क्या सिर्फ कुछेक अधिकारी इसके लिए दोषी हैं? सरकार तो यही मान रही है। अपनी इसी समझ से उसने कुछेक अधिकारियों को इधर से उधर किया। और जिम्मेवारों की खोज के लिए कमेटी भी बनाई गई है।

लेकिन यह मामले का सरलीकरण है। पूरा और कड़वा सच यह है कि जल जमाव मामले ने पूरे सिस्टम को नंगा कर दिया है। हमारी संवैधानिक व्यवस्था के तीनों अंगों-विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका, का खोखलापन इस घटना से उजागर हुआ है। पटना जल जमाव इन तीनों संस्थाओं की नाकामी का बड़ा सबूत है। ये संस्थायें वास्तविकता से बहुत दूर, आत्ममुग्धता की शिकार हैं।

बेशक नाले-नालियों समेत शहर को साफ सुथरा और सुनियोजित करना नगर निगम का काम है। नगर निगम पर निगरानी रखना नगर विकास विभाग का काम है। नगर निगम अगर निकम्मा निकला तो नगर विकास विभाग ने उसे ठीक करने के लिए क्या किया? नगर विकास मंत्री क्या करते रहे? मुख्यमंत्री हर महीने-दो महीने पर विभागों की समीक्षा करते हैं। नगर विकास विभाग की समीक्षा में क्या वे भी वास्तविकता को नहीं भांप सके? अगर समीक्षा में वे सच तक नहीं पहुंच पाये तो फिर ऐसी बैठकों का औचित्य क्या है? गड़बड़ियों की खबरें उनतक पहुंची तो जरूर होंगी, फिर गड़बड़ियों को समय रहते ठीक क्यों नहीं कर पाये? या यह मान लिया जाये कि उनका सूचनातंत्र कमजोर हो गया है, सूचनाएं उनतक नहीं पहुंच पातीं? या फिर यह माना जाए कि अफसर उनका कहा नहीं मानते? सच तो वही बता सकते हैं।

पटना हाईकोर्ट एक बार फिर जल जमाव से जुड़े PIL पर सुनवाई कर रहा है। कोर्ट के तेवर सख्त बताये जा रहे हैं। लोगों को उम्मीद है कि कुछ कड़ा फैसला आयेगा। लेकिन ऐसे न जाने कितने PIL पर वह दशकों से सुनवाई करता और निर्देश देता आ रहा है। उसकी कवायदों का परिणाम तो यही दिखता है कि पटना के बड़े हिस्से में अभूतपूर्व जल जमाव हुआ। 1975 की बाढ़ में भी इतने लंबे समय तक पटना पानी -पानी नहीं हुआ था। कोर्ट लगातार मोनिटरिंग भी करता रहा है। अतिक्रमण हटाने, नालों की सफाई, जल निकासी की व्यवस्था को लेकर कोर्ट लगातार निर्देश देता रहा है। लेकिन उसका रिजल्ट क्या हुआ? फिर इन सुनवाईयों और उसके निर्देशों का औचित्य क्या है? क्या यह माना जाये कि अफसर इतने ताकतवर हैं कि वे कोर्ट के निर्देशों को भी नहीं मानते? या फिर यह माना जाये कि अधिकारी कोर्ट की आंखों में धूल झोकते रहे हैं और विद्वान कोर्ट उनके झूठ को पकड़ नहीं पाया? अपने निर्देशों का पालन नहीं करनेवाले अफसरों को क्या कोर्ट अवमानना का दंड देगा?

यानी अपने काम में कोई एजेंसी खरी नहीं। हर जगह खानापूरी, तदर्थवाद, आंखों में धूल झोंकने और जनता को भरमाने की कोशिश ही दिखाई पड़ती है। ऐसे में पटना डूबा तो क्या डूबा, एक दिन पूरा बिहार डूब जाये तो कोई आश्चर्य नहीं! हालांकि ऊपर से पटना चमचम दिखता है, लेकिन अंदर क्या है यह अब छिपा नहीं है। अब शायद ऊपर कही ‘मोकामा घाट’ की कहावत का अर्थ स्पष्ट हो गया होगा। इसे ऐसे भी कह सकते हैं- हमाम में सब नंगे हैं।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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