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Opinion- भारत के कुछ मुसलमानों को इज़राइल से दिक्कत क्यों है?

अरे जामिया वालों, क्या इज़राइल भारत का दुश्मन है ? क्या उसने हम पर कभी आक्रमण किया है ? क्या उसने हमारी ज़मीन पर कब्जा किया है?

New Delhi, Dec 15 : दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया के मुस्लिम छात्रों ने इज़राइल को लेकर 10 दिनों तक जमकर हंगामा काटा… वजह सिर्फ इतनी सी थी कि जामिया के फैकल्टी ऑफ अर्किटेक्चर एंड एक्सिटिक्स की तरफ से अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था… जिसमें इज़राइल के एक प्रतिनिधि स्पीकर के तौर पर अपना शोधपत्र पढ़ने के लिए शामिल होने आए थे… बस भाईलोग इसी बात पर नाराज़ हो गए कि एक इज़राइली, एक यहूदी जामिया में कैसे आ सकता है??? फिर क्या था… जमकर हंगामा हुआ और मारपीट हुई…

कई लोग इस बात को नहीं समझ पाते कि आख़िर देश का एक “ख़ास” तबका इज़राइल से इतनी खुंदक क्यों रखता है? दरअसल दुनियाभर के मुसलमानों का मानना है कि इज़राइलियों की वजह से फिलीस्तीनी मुसलमान 1948 में अपनी ज़मीन से बेघर हो गए… और इसके बाद से ही पूरी दुनिया के मुसलमान पानी पी-पी कर इज़राइल को कोसते हैं जिसमें हमारे देश के मुस्लिम भाई भी शामिल हैं… जबकि भारत के नज़रिए से देखा जाए तो इज़राइल हमारा एक मज़बूत रणनीतिक सहयोगी है… तो फिर इज़राइल का विरोध करने वाले क्या देश की विदेश नीति से सहमत नहीं हैं ?

अरे जामिया वालों, क्या इज़राइल भारत का दुश्मन है ??? क्या उसने हम पर कभी आक्रमण किया है ??? क्या उसने हमारी ज़मीन पर कब्जा किया है ??? तो फिर इज़राइल से इतनी नफ़रत क्यों ???… क्या सिर्फ़ इसलिए कि इतिहास में यहूदियों का मुस्लिमों से धर्मयुद्ध हुआ था या फिर फिलीस्तीन में इज़राइल का कुछ मसला है ??? अरे मूर्खों !!! फिलीस्तीन से हमें क्या फायदा है, उससे हमारा क्या लेना-देना… एक कमज़ोर और तथाकथित देश (माफ़ कीजिएगा मैं फिलीस्तीन को देश नहीं मानता) जो एक गलियारे में पचास साल से कैद हैं और अरब मुल्कों की मदद के बाद भी कुछ हासिल नहीं कर पाया… दूसरी तरफ है एक छोटा सा मुल्क़ इजराइल, जो सारे अरब राष्ट्रो को ज़मीन पर नाक रगड़ने के लिए मजबूर कर देता है… तो बताओ किस से दोस्ती फ़ायदेमंद है ???

अफ़सोस… ये सब जामिया वालों को समझ नहीं आएगा क्योंकि उनके दिमाग़ में ज़हर भरा गया है उम्मा के नाम पर… उम्मा का अर्थ होता है “इस्लाम को मानने वाला पूरा समुदाय” यानि की पूरी दुनिया की इस्लामी बिरादरी… इस बात को समझने के लिए आपको अब्दुल रहमान अज्जम की किताब ”द एटरनल मैसेज ऑफ मोहम्मद” पढ़ना चाहिए, जिसमें लिखा है कि ”जब मुसलमान मूर्ति पूजकों और बहुदेवतावादियों के विरुद्ध युद्ध करते हैं तो वो इस्लाम के उम्मा के सिद्धांत के मुताबिक़ होता है“… ठीक जामिया वालों की तरह… जबतक कुछ लोगों के दिलो दिमाग़ में उम्मा रहेगा उनका ध्यान अपनी मातृभूमि और अपनी समस्याओं पर कम – फिलीस्तीन, साउदी अरब, इराक, ईरान, अफगानिस्तान, यमन, सीरिया, नाइजीरिया, सोमालिया पर ज्यादा लगा रहेगा…

उम्मा वाली सोच रखने वाले इन जामिया वालों का सिर्फ एक ही मक़सद हैं कि पूरी दुनिया में उम्मत की स्थापना करना… क्योंकि उम्मा कहता है कि इस्लाम की कोई सरहद नहीं है इस्लाम तो पूरी कायनात है… यही वजह है कि हर जामिया टाइप सोच वाला ज़रुरत से ज्यादा अंतरराष्ट्रीय है… उसे अपने मोहल्ले की ख़बर भले ही ना पता हो लेकिन उसे इराक, ईरान, अरब, तुर्केमिनिस्तान, सोमालिया, नाइजीरिया, म्यानमार, कुर्दिस्तान, चेचन्या, सीरिया, सिएरा लिओन, युगांडा की ख़बर पता होगी… उसे हर उस जगह के बारे में जानकारी होगी जहां जेहाद के नाम पर खूनी खेल खेला जा रहा है… खैर इसमें कोई बुराई नहीं होती अगर, सात समंदर पार की इन ख़बरों पर वो यहां रिएक्शन ना देते… मिसाल के तौर पर कुछ साल पहले म्यानमार में बौद्ध धर्म के लोगों ने तीन मुसलमान लड़कों को मार दिया तो हमारी मुंबई के इंटरनेशनल सोच वाले जामिया टाइप लोगों ने आज़ाद मैदान में शहीदों के अमर जवान ज्योति स्मारक को उजाड़ दिया…

हालांकि ये कोई नई बात नहीं है 1920 के दौर में खिलाफत आंदोलन के बाद तुर्की के खलीफा को न बचा पाने का ग़ुस्सा केरल के मोपला में हिंदुओं पर उतारा गया था… जिसे आज भी मोपला नरसंहार के नाम से जाना जाता है… दरअसल ये जामिया टाइप लोग कितने राष्ट्रीय और कितने अंतरराष्ट्रीय होते हैं इसका अंदाज़ा आप इनसे बात करके लगा सकते हैं… इस तरह के लोगों से आप बात करेंगे तो ये कहेंगे… “हमारे अरब में ऐसा होता है”… “हमने जब स्पेन जीता था”… “मुग़ल जब आए…” अरे जाहिलों, तुमने कब स्पेन जीता ??? स्पेन तो मोरक्को के तारिक इब्न ज़ियाद ने जीता था… अरब तुम्हारा कैसे हो गया ??? और अरब देश तुम्हारे हैं तो वो इज़राइल को मिलकर ख़त्म क्यों नहीं कर देते ??? वो कायर अरब तो युद्ध के मैदान में 4 बार इज़राइल से हार चुके हैं, तुम क्यों उनका झंडा लेकर यहां घूम रहे हो ??? मुझे समझ नहीं आता कि ये उम्मा वाली सोच कब जाएगी ?

जामिया में इज़राइल के नाम पर जो आज हो रहा है वो कोई नई बात नहीं है… अभी 2017 मे जामिया टाइप सोच वालों ने मोदी की इज़राइल यात्रा का विरोध किया था… उन्हे इस बात से दिक्कत थी कि मोदी इज़राइल की राजधानी तेलअवीव तो जा रहे थे लेकिन फिलीस्तीन के शहर रमल्लाह क्यों नहीं गये… अरे भाईजान, क्या ये कोई टूर पैकेज है, बैंकॉक जा रहे हो तो पटाया भी जाओ ??? अगर आप सोच रहे हैं कि ऐसे लोग कूटनीति की समझ होने की वजह से ऐसा कह रहे थे तो आप ग़लत हैं… दरअसल इसके पीछे वजह है इस्लाम और यहूदियों के बीच हुए संघर्ष का 800 साल पुराना इतिहास… भाई लोगों, अगर आपके धर्म का किसी और धर्म से नफ़रत का रिश्ता है तो इस पचड़े में भारत क्यों पड़े और उसकी विदेश नीति क्यों प्रभावित हो??? जामिया वालों अगर आपके धर्म का यहूदी धर्म से पंगा है वो भी विदेशी धरती के एक टुकड़े को लेकर तो इससे भारत की इज़राइल से दोस्ती का क्या लेना-देना ??? क्या अब धर्म की सहूलियत और मान्यताओं के आधार पर हमारे देश के दूसरे देशों के साथ रिश्ते तय होंगे ?

(वरिष्ठ पत्रकार प्रखर श्रीवास्तव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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