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हत्या के विरोध में पुरस्कार लौटाते-लौटाते हत्या के संदिग्ध को ही पुरस्कृत कर डाला!

साहित्य अकादमी स्वायत्त संस्था है और उसपर सरकार का नियंत्रण नहीं है, इसलिए शशि थरूर को पुरस्कृत किए जाने से बीजेपी सरकार का कोई लेना-देना तो नहीं दिखाई देता है।

New Delhi, Dec 19 : कांग्रेस के 40 स्तंभों में से अलग-अलग किस तरह से काम करते हैं, इसका एक सबूत और उदाहरण आप फिर से देख लीजिए।
4 साल पहले कुछ लेखकों ने कुछ हत्याओं के विरोध में अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान किया था। पहले कन्नड़ लेखक कलबुर्गी की हत्या के विरोध में एक लेखक ने पुरस्कार लौटाने का एलान किया। फिर दादरी में अखलाक की हत्या के बाद भारत में कथित रूप से बढ़ती असहिष्णुता का हवाला देकर पुरस्कार लौटाने वालों की लाइन लग गई।

अब केवल 4 साल बाद एक ऐसे कांग्रेस नेता शशि थरूर को साहित्य अकादमी पुरस्कार दे दिया गया है, जिनपर खुद हत्या का संदेह है। जी हां, अपनी पत्नी की हत्या का संदेह, जिसके लिए मुकदमा भी चल रहा है।
मतलब कि देश में किसी की भी हत्या हो, उसके विरोध में साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाए तो जा सकते हैं, लेकिन यदि स्वयं किसी हत्या के संदिग्ध को यह पुरस्कार दे दिया जाए, तो किसी को कोई तकलीफ नहीं, बल्कि सभी हर्ष मनाएंगे, मंगलगान गाएंगे। क्यों? क्योंकि, जिसे पुरस्कार मिला है, वह कांग्रेस का नेता है।

साहित्य अकादमी स्वायत्त संस्था है और उसपर सरकार का नियंत्रण नहीं है, इसलिए शशि थरूर को पुरस्कृत किए जाने से बीजेपी सरकार का कोई लेना-देना तो नहीं दिखाई देता है, लेकिन निर्णायक मंडल में रहे लेखकों और साहित्य अकादमी संस्था की नैतिकता कितनी हत्यारी हो चुकी है, इसका अंदाजा आप इस “ऐलान-ए-पुरस्कार” से लगा लीजिए। और इसका अंदाज़ा लगाते हुए उस “ऐलान-ए-जंग” को भी जरूर याद कर लीजिए, जो 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के बीच थोक में पुरस्कार लौटाने के साथ शुरू हुआ था।
मेरा कहना है कि शशि थरूर पत्नी की हत्या के संदेह/मुकदमे से बरी हो जाते, तो अपने लॉबिस्ट लगाकर आप उनके लिए नोबेल, मैग्सेसे कुछ भी मैनेज कर लेते, संभवतः वे खुद भी मैनेज करने में सक्षम हैं, लेकिन जब तक हत्या का संदेह/मुकदमा खत्म नहीं हुआ है, तब तक तो उन्हें पुरस्कृत करने की बेचैनी से बचा जा सकता था।

दरअसल, कांग्रेस यही करती रही है। संस्थाएं चाहे सरकारी हों या गैर-सरकारी- आज भी हर जगह उसके लोगों का कब्जा है। जिन्हें हम वामपंथी कहते हैं, वे भी वास्तव में कांग्रेस के ही दिए दांत से खाते हैं और केवल दिखाने के लिए ही उनके मुखड़ों पर वामपंथी दांत सजाए गए हैं। इसलिए मैं बार-बार कहता हूं कि कृपया वामपंथी बुद्धिजीवियों को कांग्रेस से अलग समझने की भूल न करें।
दूसरी तरफ भाजपा की सरकार के करीब 6 साल हो चुके हैं, लेकिन स्वायत्त संस्थाएं तो छोड़ दीजिए, वह उन संस्थाओं में भी अपने लोग नहीं बिठा पाई है, जिनपर पूरी तरह से उसका नियंत्रण है। ये अलग बात है कि इस बात का हंगामा बहुत है कि भाजपा-आरएसएस तमाम संस्थाओं में अपने लोग भर रहे हैं। लेकिन सच्चाई यह है कि भाजपा-आरएसएस आज जिन लोगों को राष्ट्रवादी समझकर किसी संस्था में बिठाते हैं, कल को उनमें भी आधे से अधिक लोग कांग्रेसी/वामपंथी निकल जाते हैं।
तो ये है कांग्रेस के 40 स्तंभों की माया, जिससे इस लोकतंत्र में आज तक कोई नहीं बच पाया।

(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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