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बाबा नागार्जुन – शायद उन्हें पता ही नहीं था कि वो इतने बड़े कवि हैं

बाबा सीपीआई के नज़दीक थे. लेकिन जब जेपी का आंदोलन हुआ तो उन्होंने सीपीआई त्याग दी और आंदोलन के साथ हो गए।

New Delhi, Jan 11 : देखो जी अपन हिंदी के आदमी हैं, इसलिए नहीं कि हमें हिंदी पसंद है बल्कि इसलिए कि हमें कोई और भाषा इतनी नहीं आती. पत्रकारिता हमने अंग्रेज़ी की भी की. लेकिन वो हमारी फर्स्ट भाषा नहीं थी इसलिए मज़ा नहीं आया. वैसे बता दूँ कि अंग्रेज़ी वालों ने हमें कभी भी हेय दृष्टि से नहीं देखा.
इस पृष्ठभूमि के बाद सुन लीजिये कि ये पोस्ट बाबा नागार्जुन के बारे में है. अपना साहित्यिक लेखन से कभी कोई वास्ता नहीं रहा- साथी श्याम कश्यप से दोस्ती के कारण कई वामपंथी लेखको से अपनी जान पहचान ज़रूर रही. कुछ अन्य प्रकार के पंथियों को भी अपन जानते हैं. वैसे एक बार अपन ने लिंग्विस्टिक्स के एक कोर्स में दाखिला भी ले लिया था लेकिन पत्रकारिता के चूतियापे ने हमें वो कोर्स पूरा नहीं करने दिया. ये चुतियापा अपन को बहुत भाता रहा, अभी भी अच्छा लगता है.

अब बाबा के बारे में. सत्तर के दशक में दैनिक जनयुग में काम करते हुए कई बड़े बड़े लेखकों से मुलाकात हुयी- बाबा उनमे से एक, बल्कि उनमे सबसे बड़े थे. बड़े ज़रूर थे लेकिन सबसे सामान्य भी थे. आप लेखन या लेखकों के बारे में कुछ भी न जानते हों फिर भी उनके साथ हंस खेल सकते थे. शायद उन्हें पता ही नहीं था कि वो इतने बड़े कवि हैं.
एक बात और. बाबा को बीड़ी, सिगरेट और इन दोनों से जुड़े उन सभी तत्वों से बड़ा प्यार था जो उस समय के जवानों को प्रिय थे – अपन तब चौबीस पच्चीस के थे. अपना मिज़ाज़ भी कहाँ अलग था. मिंटो रोड की एक जाफरी(मेन मकान के बाहर का एक कमरा)में अपनी रिहायश थी (इस जाफरी से जुडी कई कहानियां हैं, जिन पर फिर कभी). बाबा के साथ कई बार इस जाफरी में सत्संग हो चुका था इसलिए बाबा को इस अड्डे का पता था.

एक दिन अपन रात को घर पहुंचे तो क्या देखते हैं कि अपनी जगह पर किसी और ने कब्ज़ा कर लिया है. अपने बिस्तर पर किसी और का कब्ज़ा कोई नयी बात नहीं थी लेकिन पहली बार इतने मैले कुचैले कपडे पहने बेतरतीब दाढ़ी वाला कोई आदमी हमारी नींद छीनने की कोशिश कर रहा था – बुरा लगना ही था. हमने गुस्से में चादर खींची तो देखा घुटने छाती में घुसाए बाबा खर्राटे भर रहे हैं. बीड़ी का आधा अधखुला बण्डल बगल में पड़ा था.
बहरहाल अगले दिन पता चला कि बाबा, जो कुछ महीनों से सीताराम येचुरी के साथ रह रहे थे ( ये बाबा ने बताया था) किसी बात पर उनसे नाराज़ होकर वहां से निकल आये और फिर कोई और ठिकाना नहीं था इसलिए अपने आश्रम में पहुँच गए.

नाराज़गी जायज़ थी. बाबा सीपीआई के नज़दीक थे. लेकिन जब जेपी का आंदोलन हुआ तो उन्होंने सीपीआई त्याग दी और आंदोलन के साथ हो गए. सीपीएम ने फ़ौरन उन्हें लपक लिया. कुछ दिन बाद जब बाबा का मोहभंग हुआ तो उन्होंने लिख दिया “फ़र्ज़ी विप्लव देखा हमने …”. सीपीएम वाले नाराज़ हो गए और बाबा हमारी ज़ाफ़री में टपक पड़े. हमारे लिए वो तब भी पूज्य थे जब सीपीआई में थे, तब भी जब सीपीएम में चले गए और तब भी जब सीपीएम ने उन्हें दुत्कार दिया.
आज जब उनके बारे में नाना प्रकार की बातें हो रही हैं, अपन को बुरा लग रहा है. वो होते तो तो उनसे साफ़ पूछा जा सकता था. वो जबाब भी ज़रूर देते – उन्हें कहाँ किसी चीज़ का डर था. लेकिन जो गलत है वो तो गलत है ही ….
(याददाश्त के आधार पर)

(चर्चित वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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