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Opinion – असली गाँधी थे बादशाह खान

तब बादशाह खान शांतिदूत बनकर अहमदाबाद आये थे| दैनिक “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” के मेरे संपादक ने मुझे बादशाह खान के शांति मिशन की सप्ताह भर की रिपोर्टिंग का जिम्मा सौंपा|

New Delhi, Jan 21 : आजकल भारत में हो रहे फसाद के परिवेश में खान अब्दुल गफ्फार खान बहुत याद आते हैं| उनकी बत्तीसवीं पुण्यतिथि है आज| वे इन दोनों विषम आस्थावालों की एकता के प्रतीक थे| खुदगर्ज मुसलमान इस फ़कीर को नकारते थे, क्योंकि वह अखण्ड भारत का पोषक रहा| संकीर्ण हिन्दू को इस ऋषि से हिकारत थी| क्योंकि वे दोनों कौमवालों को भाई मानते थे| वे सीमान्त गाँधी कहलाते थे| बापू की प्रतिकृति थे| हालाँकि अब गाँधी कुलनाम का उपयोग कई ढोंगी करने लगे हैं|

आजादी की बेला पर कुर्सी की रेस में नेहरु-पटेल ने इस अकीदतमंद हिन्दुस्तानी से उनकी मातृभूमि (सरहद प्रान्त) छीनकर अंग्रेजभक्त मोहम्मद अली जिन्ना की झोली में डाल दी थी| तब इस भारतरत्न और उनके भारतभक्त पश्तूनों को कांग्रेसियों ने “भेड़ियों” (मुस्लिम लीगियों) के जबड़े में ढकेल दिया था| और बापू मूक रहे| दशकों तक पाकिस्तानी जेलों में नजरबंद रहे, यह फ़खरे-अफगन, उतमँजाई समुदाय के ‘बाच्चा खान’ अहिंसा की शत-प्रतिशत प्रतिमूर्ति थे| बापू तो अमनपसन्द गुजराती थे जिनपर जैनियों और वैष्णवों की शांति-प्रियता का घना प्रभाव था| मगर गफ्फार खान थे पठान, जिनकी कौम पलक झपकते ही छूरी चलाती हो, दुनाली जिनका खिलौना हो, लाशें बिछाना जिनकी फितरत हो, लाल रंग पसंदीदा हो, लहूवाला| ऐसा पठान अहिंसा का दृढ़ प्रतिपादक हो !आश्चर्य है| बापू के असली अनुयायी वे थे|

अपनी काबुल यात्रा पर राममनोहर लोहिया ने बादशाह खान से भारत आने का आग्रह किया था| दिल्ली(1969) विमान-स्थल पर उतरते ही बादशाह खान ने पूछा था “लोहिया कहाँ है?” जवाब मिला उनका इंतकाल हो गया| सत्तावन साल में ही| फिर पूछा, उनका कोई वारिस? बताया गया: अविवाहित थे और गांधीवादी हीरालाल लोहिया की अकेली संतान थे| उसवक्त इंदिरा गांधी ने उनसे उनकी काँख में दबी पोटली थामने की कोशिश की| मगर यह सादगी पसंद फ़कीर अपना असबाब खुद ढोता रहा| उसमें फकत एक जोड़ी खादी का कुर्ता-पैजामा और मंजन था|

उन्ही दिनों (सितम्बर 1969) गुजरात में आजादी के बाद का भीषणतम दंगा हुआ था| शुरुआत में एक लाख मुसलमान प्रदर्शनकारी अहमदाबाद की सड़कों पर जुलूस निकालकर नारे लगा रहे थे: “इस्लाम से जो टकराएगा, मिट्टी में मिल जायेगा|” मुजाहिरे का कारण था कि चार हजार किलोमीटर दूर अलअक्सा मस्जिद की मीनार पर किसी सिरफिरे यहूदी ने मामूली सी तोड़फोड़ की थी| साबरमती तट पर विरोध व्यक्त हुआ| प्रतिक्रिया में भड़के हिन्दुओं ने रौद्र रूप दिखाया| मारकाट मचायी| चार सौ मुसलमान तीन दिन में कत्ल कर दिये गये|

तब बादशाह खान शांतिदूत बनकर अहमदाबाद आये थे| दैनिक “टाइम्स ऑफ़ इंडिया” के मेरे संपादक ने मुझे बादशाह खान के शांति मिशन की सप्ताह भर की रिपोर्टिंग का जिम्मा सौंपा| इंडियन एक्सप्रेस ने वरिष्ठ संवाददाता सईद नकवी को तैनात किया था| ढाई दशक बाद इस दरवेश के दुबारा दर्शन मुझे गुजरात में हुये| पहली बार (1946) में| तब सेवाग्राम आश्रम में मेरे संपादक पिता (स्व. श्री के. रामा राव) लखनऊ जेल से रिहा होकर सपरिवार गांधी जी के सान्निध्य में आये थे| अनीश्वरवादी थे पर उन्होंने मुझ बालक को बादशाह खान के चरण स्पर्श करने को कहा था| किन्तु दो दशक बाद अहमदाबाद में स्वेच्छा से मैंने सीमान्त गांधी के पैर छुये थे| अनुभूति आह्लादमयी थी| बादशाह खान की तक़रीर हुई मस्जिद में, जुमे की नमाज के बाद| वे बोले, “मैं कहता था तुम्हारे सरबराह नवाब, जमींदार और सरमायेदार हैं| पाकिस्तान भाग जायेंगे| लीग का साथ छोड़ो| तुम्हारे लोग तब मुझे हिंदू बच्चा कहते थे| आज कहाँ हैं वे सब?” दूसरे दिन वे हिन्दुओं की जनसभा में गये| वहां कहा, “कितना मारोगे मुसलमानों को? चीखते हो कि उन्हें पाकिस्तान भेजो या कब्रिस्तान! भारत में इतनी रेलें, जहाज और बसें नहीं हैं कि बीस करोड़ को सरहद पार भेज सको| साथ रहना सीखो| गांधीजी ने यही सिखाया था|”

अगले दिन प्रेस कांफ्रेंस में एक युवा रिपोर्टर ने उनसे पूछा कि “जब पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली हिन्दू युवतियों के साथ पंजाबी मुसलमान बलात्कार कर रहे थे और कलमा पढ़वा रहे थे, तो आप क्या कर रहे थे?” सरहदी गांधी का जवाब सरल, छोटा सा था : “पाकिस्तानी हुकूमत ने मुझे पेशावर की जेल में सालों से नजरबन्द रखा था|” तब मैं युवा था| मैंने उस हिन्दू महासभायी पत्रकार का कालर पकड़कर फटकारा कि, “पढ़कर, जानकर आया करो कि किससे क्या पूछना है|”
उन्हीं दिनों भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस दो फाड़ की कगार पर थी| कांग्रेस अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा, मोरारजी देसाई, एस. के. पाटिल, अतुल्य घोष आदि ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से बरतरफ कर दिया था| बादशाह खान से मैंने पूछा था, “आप तो राष्ट्रीय कांग्रेस में 1921 से पच्चीस साल तक जुड़े रहे, क्या आप दोनों धड़ों को मिलाने की कोशिश करेंगे?” उनका गला रुंधा था| आर्त स्वर में बोले : “तब (1947) मेरी नहीं सुनी गई थी| सब जिन्ना की जिद के आगे झुक गये थे| मुल्क का तकसीम मान लिया| आज कौन सुनेगा?”

उनकी नजर में यह कांग्रेस “वैसी नहीं रही जो बापू के वक्त थी| आज तो सियासतदां खुदगर्जी से भर गये हैं|” बादशाह खान को यह बात सालती रही कि दुनिया को अपना कुटुंब कहने वाला हिन्दू भी फिरकापरस्त हो गया है| कट्टर इस्लामपरस्ती के तो वे स्वयं चालीस साल तक शिकार रहे| आत्मसुरक्षा की भावना प्रकृति का प्रथम नियम है| किन्तु उत्सर्ग भाव तो शालीनता का उत्कृष्टतम सिद्धांत होता है| बादशाह खान का त्यागमय जीवन इसी उसूल का पर्याय है|

(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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