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Opinion – देश को दिशा देगा दिल्ली का चुनाव

आक्रामक चुनाव प्रचार दोधारी तलवार की तरह होता है। इसमें अगर विरोधियों को पस्त करने का माद्दा होता है, तो खुद के नुकसान का खतरा भी होता है।

New Delhi, Feb 09 : लोकतंत्र में मतदान हर मतदाता का अधिकार भी है और जिम्मेदारी भी। शनिवार को दिल्ली के मतदाताओं ने बढ़-चढ़कर इस फर्ज को पूरा किया। दिल्ली का फैसला क्या होगा, इसकी आधिकारिक मुहर तो मंगलवार को ही लगेगी, लेकिन तमाम ओपिनियन (और एक्जिट) पोल आम आदमी पार्टी की वापसी का ही अनुमान लगा रहे हैं। यानी बीजेपी का 21 साल से चला आ रहा वनवास इस बार भी शायद जारी रह सकता है। अनुमान है कि कांग्रेस को इस बार भी केवल अपना खाता खुलने की खुशी ही नसीब होने जा रही है।

बेशक ओपिनियन (और एक्जिट) पोल को अंतिम सत्य नहीं माना जा सकता, लेकिन इससे चुनावी हवा का इशारा तो मिलता ही है। हालांकि बीजेपी को लग रहा है कि इस बार हवा उसके पक्ष में बह रही है। हाल ही में पार्टी के अध्यक्ष पद से निवृत्त हुए गृहमंत्री अमित शाह तो इस बार 45 सीटों का दावा कर रहे हैं। फिलहाल ये दावा भले ही महत्वाकांक्षी लग रहा हो, लेकिन इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि चुनाव प्रचार के आखिरी दौर में बीजेपी काफी हद तक अपनी खोई जमीन दोबारा हासिल करने में क़ामयाब रही है।
जनवरी में जब दिल्ली चुनाव पर पहला ओपिनियन पोल सामने आया था तब विमर्श मुकाबले को लेकर नहीं, बल्कि इस बात पर था कि क्या आम आदमी पार्टी अपने पिछले प्रदर्शन को भी बेहतर कर सकती है? तब अनुमान था कि 70 में से कम-से-कम 59 सीटों पर तो आम आदमी पार्टी की जीत तय है। उस पोल में बीजेपी को 8 और कांग्रेस को 3 सीटें मिलने की संभावना थी। लेकिन महज एक महीने बाद हुए ओपिनियन पोल में चुनाव का नतीजा भले ही नहीं बदला, लेकिन सीटों का गणित जरूर बदल गया। प्रचार थमने से महज 24 घंटे पहले आए इन अनुमानों में आम आदमी पार्टी की सीटें घटकर 42 से 56 के दायरे में आ गईं, जबकि बीजेपी का ग्राफ उछलकर 10-24 सीटों तक पहुंच गया।

दोनों ओपिनियन पोल के बीच एक महीने का अंतराल रहा और इसी अंतराल में बीजेपी ने चुनावी चाल को बदलने का काम किया। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और चुनावी चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह के साथ पार्टी के नए अध्यक्ष जेपी नड्डा की अगुवाई में बीजेपी ने हाल के चुनावों में शायद सबसे ज्यादा आक्रामक प्रचार किया। वैसे बीजेपी के प्रचार की शुरुआत काफी फीकी रही। शायद इसकी वजह पिछले पांच साल में दिल्ली की बुनियादी सुविधाओं में आए बदलाव और अरविंद केजरीवाल के मुकाबले का सीएम प्रत्याशी न दे पाना रहा हो। लेकिन प्रचार के आखिरी दौर में एक ऐसी घटना चुनाव का मुख्य मुद्दा बनती गई, जिसका भले ही दिल्ली से कोई सीधा सरोकार न हो, लेकिन उसके सामने दिल्ली से जुड़े सभी प्रमुख मुद्दे छोटे पड़ते गए। विरोधियों ने इस मुद्दे को बीजेपी को घेरने का हथियार बनाना चाहा, लेकिन बीजेपी ने इस मुद्दे को राष्ट्रवाद से जोड़कर बाजी को काफी हद तक अपने पक्ष में कर लिया।

ये मुद्दा रहा शाहीन बाग का जहां इलाके की मुस्लिम महिलाएं सीएए-एनआरसी के विरोध में धरने पर बैठी थी। शुरुआत में तो ये विरोध उपेक्षित ही रहा, लेकिन धीरे-धीरे इसने तूल पकड़ना शुरू किया। बीजेपी ने अपनी झोली में गिरे इस ‘चुनावी गिफ्ट’ को राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बताते हुए मुहिम छेड़ दी। चुनाव में राष्ट्रवादी तड़का लगाने के लिए बीजेपी ने अपने 70 मंत्रियों और 250 सांसदों को दिल्ली की सड़कों पर उतार दिया। खुद अमित शाह दिल्ली की गलियों में डोर-टू-डोर कैम्पेन करते दिखे।
प्रचार का हर दिन गुजरने के साथ शाहीन बाग के आसपास विवादों की इमारत बड़ी होती चली गई। सड़क ब्लॉक होने से स्थानीय लोगों की दिक्कतें, प्रदर्शनकारियों को ‘दिहाड़ी का भुगतान’, उनके खाने का इंतजाम, पीएफआई की फंडिंग, प्रदर्शन के विरोध में तीन-तीन बार फायरिंग, प्रदर्शन स्थल पर नवजात की मौत जैसे कई विवाद इससे जुड़ते गए। नेताओं के विवादित बयानों ने आग में घी डालने का काम किया जिसे रोकने के लिए चुनाव आयोग को बार-बार नोटिस और चेतावनी का चाबुक चलाना पड़ा। सड़क पर प्रचार की बंदिश लगी तो कठघरे में आए नेताओं ने संसद में शाहीन बाग मसले पर संग्राम छेड़ दिया। ‘राष्ट्रवाद’ के जोर पकड़ते नारों के बीच स्थानीय मुद्दों का शोर मद्धिम पड़ता चला गया।

प्रचार में राष्ट्रवाद का ‘बुखार’ ऐसा सिर चढ़कर बोला कि अरविंद केजरीवाल तक को अपने हिंदू होने का प्रमाण देना पड़ा। इसके लिए उन्होंने हनुमान चालीसा का पाठ भी करना शुरू कर दिया। जो कसर बाकी थी, वो धरना स्थल से शरजील इमाम के असम को तोड़ने वाले बयान ने पूरी कर दी। वोटिंग से पहले आए ओपिनियन पोल में 83 फीसद लोगों ने माना कि शाहीन बाग का धरना चुनाव में बड़ा मुद्दा बना। इनमें से 39 फीसद लोगों ने यह भी माना कि इससे बीजेपी को फायदा होगा। गौर करने वाली बात ये है कि पोल में रोजगार, प्रदूषण, महिला सुरक्षा, मोहल्ला क्लीनिक, महंगाई, विकास और दूसरे विकल्प भी शामिल थे, लेकिन सर्वे में शामिल लोगों ने शाहीन बाग को भी अहमियत दी।

बीजेपी को भी लगता है कि शाहीन बाग पर आक्रामक प्रचार से एक तीर से दो शिकार का उसका मकसद पूरा हुआ है। एक तरफ उसका कोर वोट बैंक पार्टी में वापस लौटा है और विपक्ष का वोट बैंक कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच बंटा है। दिल्ली में कुल मतदाताओं में 41 फीसद सवर्ण और 12 फीसद मुस्लिम हैं। बीते पांच चुनावों का विश्लेषण बताता है कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव के लिए इन वोटरों की प्राथमिकताएं बदलती रही हैं। लोकसभा चुनाव में सवर्णों ने बीजेपी पर भरोसा दिखाया, तो विधानसभा चुनाव के लिए उन्हें आम आदमी पार्टी का साथ रास आया है। इसी तरह मुस्लिम वोटर भी दोनों चुनावों में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के बीच पाला बदलते रहे हैं। नौ महीने पहले लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी ने दिल्ली की सातों सीटों पर विरोधियों का सफाया किया था तो उसे 75 फीसद सवर्ण वोटरों का साथ मिला था। ये सियासी समीकरण सीधे शाहीन बाग से जाकर जुड़ता है। बीजेपी का आकलन है कि अगर लोकसभा चुनाव की ही तरह सवर्ण उसके साथ बने रहे और मुस्लिम वोटर आम आदमी पार्टी और कांग्रेस के बीच बंट गए, तो दिल्ली की सत्ता से दो दशकों की दूरी को खत्म किया जा सकता है।

लेकिन आक्रामक चुनाव प्रचार दोधारी तलवार की तरह होता है। इसमें अगर विरोधियों को पस्त करने का माद्दा होता है, तो खुद के नुकसान का खतरा भी होता है। बीजेपी के ही कई समर्थकों को ये डर भी सता रहा है कि प्रचार में अरविंद केजरीवाल पर जिस तरह निजी हमले किए गए वो बैकफायर भी कर सकता है। आतंकी बताए जाने के जवाब में केजरीवाल ने ‘परिवार के बड़े बेटे’ वाला जो इमोशनल कार्ड खेला, वो बीजेपी की पूरी सियासी कवायद को उलट-पलट कर रख सकता है। ओपिनियन पोल में दिल्ली के 48 फीसद लोगों ने कहा भी है कि केजरीवाल को निजी तौर पर निशाना बनाना बीजेपी के लिए नुकसानदेह हो सकता है।
वोटिंग से ठीक पहले दिल्ली चुनाव में केंद्र सरकार की एजेंसी सीबीआई की एंट्री पर भी सवाल खड़े हुए हैं। डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया के ओएसडी की रिश्वत लेते हुई गिरफ्तारी ने भले ही बीजेपी को आम आदमी पार्टी पर हमले का एक और मौका दे दिया हो, लेकिन इस कार्रवाई की टाइमिंग ने बीजेपी को भी कठघरे में खड़ा किया है।

वैसे दिल्ली का चुनाव प्रचार जिस तरह आगे बढ़ा, उसके क्लाइमैक्स का ऐसा होना हैरान नहीं करता। पिछले एक महीने में विकास से शुरू हुई चुनावी जंग कई मुकाम से गुजरते हुए राष्ट्रवाद की दहलीज भी पार कर गई। कई बातें ऐसी हुईं जिनका जिक्र भी बेमानी है, तो कई मुद्दे ऐसे भी रहे जो देश को नई दिशा देने का संकेत भी है। बहरहाल, सियासी दांव-पेंच का वक्त अब बीत चुका है। दिल्ली की डोर अब जनता के हाथ में है जिसने अपने वोट की ताकत से यह तय कर दिया है कि राजनीतिक दल चाहे जितना जोर लगा लें, लोकतंत्र में जीत का आखिरी मंत्र उसी का होगा।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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