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जनता के लोभ का दोहन करने के लिए उसे दुर्बल बनाए रखना चाहते हैं राजनीतिक दल

राजनीतिक दल इस सच्चाई को बखूबी जानते हैं, इसलिए अमूमन हर चुनाव में उम्मीदवारों द्वारा जनता को लालची मानकर पैसे और शराब बांटे जाने की घटनाएं बड़े पैमाने पर होती हैं।

New Delhi, Feb 14 : भारतीय उपमहाद्वीप के लोग मूलतः भय और लोभ से ग्रस्त लोग होते हैं। पिछले 1000 साल के इतिहास से स्पष्ट है कि यहाँ के लोगों ने एक तरफ जहां अपने भय के कारण बड़ी संख्या में इस्लाम को अपना लिया, वहीं दूसरी तरफ अपने लोभ के कारण बड़ी संख्या में ईसाइयत को अपना लिया। अपने लोभी और डरपोक लोगों की वजह से ही इसे 1000 साल तक आक्रमणकारियों और साम्राज्यवादियों की गुलामी सहनी पड़ी।

राजनीतिक दल इस सच्चाई को बखूबी जानते हैं, इसलिए अमूमन हर चुनाव में उम्मीदवारों द्वारा जनता को लालची मानकर पैसे और शराब बांटे जाने की घटनाएं बड़े पैमाने पर होती हैं। जो दल सत्ता में होते हैं, उनके पास सुविधा होती है कि वे लोगों को पैसे और शराब के अलावा भी अनेक चीज़ें और सुविधाएं मुफ़्त में बांट सकते हैं।
मौलिक तौर पर लोभी जनता को और मुफ्तखोर बनाने के इस खेल में सभी नंगे हैं। कोई लैपटॉप बांटता है, कोई टीवी बांटता है, कोई कपड़े बांटता है, कोई साइकिल बांटता है, कोई ऐसी व्यवस्था दे देता है कि खटिया पर लेटे-लेटे दारू और ताड़ी के नशे में चूर आदमी को 100 दिन की मजदूरी और कमीशनखोर को कमीशन मिल जाए, कोई मुफ़्त बिजली पानी का वादा करता है, तो कोई स्वच्छता के नाम पर लोगों को अपने घरों में शौचालय बनवाने के भी पैसे देता है। इन सारी योजनाओं के अपने-अपने फायदे भी होंगे, मैं इस बात से पूरी तरह इनकार नहीं करता, लेकिन राजनीतिक दलों की मंशा लोगों के लालच को वोटों में तब्दील करने भर की होती है। लोगों को सुदृढ़ बनाना किसी भी राजनीतिक दल या सरकार के एजेंडे पर नहीं है।

ध्यान दें कि आज भी बड़ी संख्या में महिलाएं वेश्यावृत्ति और पुरूष उनकी दलाली कर रहे हैं और धीरे धीरे यह कारोबार और फैलता ही जा रहा है। सामाजिक तौर पर इसे गलत मानते हुए भी अनेक लोग इसे धन और रोजगार प्राप्त करने का एक मज़बूत मॉडल समझ रहे हैं! इसी तरह, क्या बच्चे, क्या बूढ़े, क्या स्त्री, क्या पुरूष आज भी तरह-तरह के लोग बड़ी संख्या में इस देश में भीख मांग रहे हैं। बड़े-बड़े गिरोह इस धंधे का संचालन करते हैं, लेकिन कभी कोई गिरोह पकड़ा नहीं जाता, किसी को सज़ा होना तो दूर की बात है। ये दोनों उदाहरण मैंने इसलिए दिए कि अगर आपको किसी भी समाज की दुर्बलता नापनी हो तो सबसे पहले यह देखिए कि कितने लोग देह बेचकर और कितने लोग भीख मांगकर जी रहे हैं।

साफ है कि राजनीतिक दल और सरकारें भी चाहती हैं कि चाहे वेश्यावृत्ति या दलाली करके कमाओ या भीख मांगकर खाओ, हमें कोई मतलब नहीं। जब ज़रूरत महसूस होगी तो वोटों के बदले कोई भीख हम भी तुम्हें दे देंगे। और आम जनता ही क्यों, सांसद, विधायक, मंत्री भी मुफ्त में ढेर सारी सुविधाएं लेते हैं, फिजूलखर्ची करते हैं, सुविधाओं का दुरुपयोग करते हैं, लेकिन उन्हें इस बात की कभी आत्मग्लानि तक नहीं होती कि जिस पैसे पर वो अय्याशी कर रहे हैं, वह किसी और के खून पसीने की कमाई है।
मुफ़्त के लिए भारत के लोग किस तरह रातों रात बदल जाते हैं, इसका ज्वलंत उदाहरण मैंने अपने बिहार में देखा। किसी के घर की कोई लड़की साइकिल चलाती हुई दिख जाती थी, तो लड़के फब्तियां कसते थे, समाज चिंतित हो जाता था कि कैसा कलियुग आ गया है, मां-बाप को शर्मिंदा किया जाता था। लेकिन जैसे ही नीतीश सरकार ने 11वीं और 12वीं की लड़कियों को फ्री में साइकिल देने का एलान किया, रातों रात सबकी सोच बदल गई। उस दिन से आज तक किसी ने लड़कियों के साइकिल चलाने को घोर कलियुग नहीं माना। निश्चित रूप से यह नीतीश सरकार का एक क्रांतिकारी कदम था, लेकिन समाज किस तरह मुफ़्त लेकर पलटी मारता है और रातों-रात किस तरह से उसकी सोच भी बदल जाती है, यह इस बात का जीता जागता प्रमाण है।

इसे ठीक से समझना होगा। सभी तरह के मुफ्त पर मेरी टिप्पणी नहीं है। किसी भूखे को एक दिन रोटी दे देना मानवता है, लेकिन हर दिन रोटी देते रहना उसे भिखमंगा और कामचोर बनाना है। स्कूल में मुफ्त शिक्षा देना किसी लोक कल्याणकारी राज्य में सरकार का दायित्व होना चाहिए, लेकिन स्कूल में खाना खिलाने लगना बच्चों के हाथों में कटोरा थमा देना है। सरकार की इस गलत नीति के कारण देश भर के सरकारी स्कूलों का स्तर दयनीय रूप से गिर चुका है और मजदूरों और बेरोज़गारों को छोड़कर ज़्यादातर लोगों ने अपने बच्चे सरकारी स्कूलों से निकाल लिए हैं। जिस देश में कृष्ण और सुदामा के साथ पढ़ने की कहानियां हैं, वहां शिक्षा के इतने सारे लेयर्स बन गए हैं कि समाज में भेदभाव की खाई और चौड़ी होती जाने का खतरा पैदा हो गया है।

सरकार कहती है कि 81 करोड़ लोगों को जनवितरण प्रणाली से सस्ता अनाज दे रही है, लेकिन गरीबी रेखा से नीचे के लोगों की संख्या इसकी महज एक तिहाई बताती है। मेरा कहना है कि या तो गरीबी रेखा की परिभाषा ठीक कीजिए और मान लीजिए कि देश में 81 करोड़ लोग गरीब हैं या फिर जब इतने लोग गरीब हैं ही नहीं, तो गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को सब्सिडी देना बंद कीजिए। और अगर इन दोनों में से कोई एक काम नहीं कर सकते, तो साफ-साफ बता दीजिए कि जनवितरण के नाम पर एक निरंतर घोटाला चल रहा है, जिसमें सबकी मिलीभगत है।

मैं मानता हूं कि केवल दो चीजें- शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं- हमेशा-हमेशा के लिए मुफ़्त होनी चाहिए। अन्य सभी चीजें आवश्यकतानुसार सब्सिडाइज्ड हो सकती हैं, और नागरिकों को इनके लिए सरकार पर निर्भर नहीं बनाया जाना चाहिए। लेकिन आप देखिए कि शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्र आज काफी हद तक माफिया के चंगुल में है और ये माफिया या तो विभिन्न राजनीतिक दलों से ही जुड़े हैं या उनके ही संरक्षण में पल-बढ़ रहे हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य के अलावा अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए समाज को सबल बनाए जाने की ज़रूरत है, लेकिन जब इरादा ही सबलीकरण का नहीं, दुर्बलीकरण का हो, ताकि नागरिक राजनीतिक दलों और सरकारों के रहमोकरम पर रहें, तो क्या किया जाए?

माफ कीजिए, मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि बच्चे हम और आप पैदा करें, लेकिन उन्हें खिलाने-पिलाने, कपड़ा-लत्ता, साइकिल-लैपटॉप, टीवी-मोबाइल, घर-शौचालय देने की ज़िम्मेदारी सरकार की हो।
1. अनाज फ्री में नहीं होना चाहिए। सब्सिडाइज्ड अनाज केवल गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को मिलना चाहिए, इस योजना के साथ कि एक निश्चित टाइम फ्रेम में गरीबी खत्म कर दी जाएगी। स्कूल में सरकार को खाना नहीं देना चाहिए।
2. केवल पीने का पानी सबके लिए मुफ़्त होना चाहिए, अन्य पानी नहीं।
3. बिजली किसी के लिए मुफ़्त नहीं होनी चाहिए, बल्कि उचित मूल्य पर मिलनी चाहिए।
4. सड़क पर चलने के पैसे किसी को नहीं लगने चाहिए।
5. सरकारी स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ने और अस्पतालों में इलाज कराने के पैसे किसी को नहीं लगने चाहिए।
6. टीवी, लैपटॉप, मोबाइल किसी को मुफ्त नहीं मिलना चाहिए।
7. लोगों को घर और शौचालय बनाने के लिए पैसे देने के बजाय जनसंख्या नियंत्रण पर ज़ोर देना चाहिए और नियंत्रित जनसंख्या के लिए रोजगार की व्यवस्था करनी चाहिए।

मेरा कहना है कि सरकारें राम से टैक्स लेकर श्याम के बच्चे नहीं पाल सकतीं। न ही राम से सरकार को मिले टैक्स के भरोसे श्याम को बच्चे पैदा करने चाहिए। इसलिए, मुफ्त और सब्सिडी की सूची विशुद्ध रूप से तार्किक और मानवीय आधार पर बनाई जानी चाहिए, वह भी केवल उतने समय के लिए, जितने समय के लिए वास्तव में उसकी ज़रूरत है। अगर यह वोट बैंक की राजनीति द्वारा वोटरों को ललचाने के हथियार के तौर पर निर्मित और संचालित होगी, तो देश सही दिशा में नहीं बढ़ पाएगा।

अंत में, मुफ़्त की इस सियासत पर लगाम लगाने के लिए वोट बैंक की राजनीति छोड़ते हुए इन चार चीजों पर फोकस किया जाना बेहद जरूरी है-

1. जनसंख्या नियंत्रण
2. महंगाई पर नियंत्रण
3. बेरोजगारी पर नियंत्रण
4. कम्युनिटी संचालित बुनियादी सुविधा ढांचे का विकास
लेकिन मुझे नहीं लगता कि किसी भी राजनीतिक दल या सरकार के पास इन 4 प्राथमिकताओं पर काम करने का कोई ठोस मॉडल है।
डिस्क्लेमर: मेरा यह लेख देश की पूरी राजनीतिक संस्कृति पर टिप्पणी है। इसे किसी एक पार्टी की चुनावी जीत से जोड़कर न देखा जाए।

(वरिष्ठ पत्रकार अभिरंजन कुमार के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक  के निजी विचार हैं)
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