New Delhi, May 13 : भारत और नेपाल के बीच सीमांत की एक सड़क को लेकर नया तनाव पैदा हो गया है। यह सड़क लिपुलेख के कालापानी क्षेत्र से होती हुई जाती है। यदि इस रास्ते से जाएं तो कैलाश-मानसरोवर जल्दी पहुंचा जा सकता है। इस नई सड़क का उद्घाटन रक्षामंत्री राजनाथसिंह ने पिछले हफ्ते ज्यों ही किया, काठमांडो में हलचल मच गई। कई भारत-विरोधी प्रदर्शन हो गए। नेपाली विदेश मंत्रालय ने भारतीय राजदूत को बुलाकर एक कूटनीतिक पत्र देकर पूछा है कि इस नेपाली जमीन पर भारत ने अपनी सड़क कैसे बना ली है ? नेपाल की सत्तारुढ़ कम्युनिस्ट पार्टी के अध्यक्ष पुष्पकमल दहल प्रचंड ने अपने प्रधानमंत्री के.पी. शर्मा ओली से कहा है कि भारत कूटनीतिक तरीके से नहीं माननेवाला है। उसके लिए नेपाल को कुछ आक्रामक तेवर अपनाना पड़ेगा।
असलियत तो यह है कि कालापानी क्षेत्र को लेकर भारत और नेपाल के बीच भ्रांति काफी लंबे समय से बनी हुई है। यह क्षेत्र भारत के उत्तराखंड, नेपाल और तिब्बत के सीमांत पर स्थित है। यह तिब्बत के तक्लाकोट नामक शहर के पास है। इसके साथ बने कच्चे रास्ते से दोनों-तीनों देशों के लोग व्यापार और यात्रा आदि भी सैकड़ों वर्षों से करते रहे हैं लेकिन 1816 में भारत की ईस्ट इंडिया कंपनी और नेपाली सरकार के बीच सुगौली संधि हुई, जिसके अनुसार भारत ने अपनी सीमा कालापानी नदी के झरनों तक मानी और नेपाल ने उसे कालापानी नदी के सिर्फ किनारे तक मानी है।
भारत में नेपाल के राजदूत रहे और मेरे सहपाठी रहे प्रो. लोकराज बराल का कहना है कि यह विभ्रम इसलिए फैला है कि
लगभग 35 किमी की इस कच्ची सड़क पर नेपाल ने 1962 में अपना दावा ठोका था लेकिन इस पर व्यावहारिक रुप में भारत का ही अधिकार रहा है। 2015 में जब भारत और चीन ने लिपुलेख के जरिए आपसी व्यापार का समझौता किया तो नेपाल ने इस पर आपत्ति की थी। इस मसले पर नेपाल ने दोनों देशों के विदेश सचिवों की बैठक का प्रस्ताव भी पांच-छह साल पहले रखा था। कोई आश्चर्य नहीं कि नेपाल के कुछ भारत-विरोधी तत्व इस मसले को वैसा ही तूल देने की कोशिश करें, जैसा कि 2015 में भारत-नेपाल घेराबंदी के समय देखा गया था। जरुरी यह है कि इस मामले को आपसी विचार-विमर्श और पारस्परिक उदारता से सुलझाया जाए।
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