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Opinion- चुनावी खर्चे में कमी के लिए पार्टियां भरसक करें डिजिटल सभाएं

राजनीतिक समां बांधाने के लिए राजनीतिक दल हर बार बड़ी -बड़ी चुनावी सभाएं करते हैं। उन पर बहुत सारे पैसे खर्च होते हैं।

New Delhi, Jun 05 : केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह सात जून को बिहार में ‘डिजिटल रैली’ करेंगे। यानी, वे डिजिटल माध्यमों के जरिए प्रदेश के भाजपा कार्यकत्र्ताओं और आम लोगों को संबोधित करेंगे। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ‘मन की बात’ ऐसे ही माध्यमों के जरिए लोगों तक पहुंचाते रहे हैं। इसी 3 जून को मुख्य मंत्री नीतीश कुमार ने पटना से वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए मुजफ्फरपुर में स्थापित जार्ज फर्नांडिस की मूत्र्ति का अनावरण किया। कोरोना महामारी ने कुछ खास तरह की स्थिति पैदा कर दी है। फिलहाल उसी में जीना है।

पर, इस विपत्ति को वरदान बनाया जा सकता है। बिहार में विधान सभा चुनाव की तैयारी शुरू हो चुकी है। अक्तूबर-नवंबर में चुनाव होने हैं। राजनीतिक समां बांधाने के लिए राजनीतिक दल हर बार
बड़ी -बड़ी चुनावी सभाएं करते हैं। उन पर बहुत सारे पैसे खर्च होते हैं। यदि चुनाव तक कोरोना की महामारी थम गई तो वही होगा जो पहले भी होता रहा है। पर यदि नहीं थमी तो अनेक नेताओं व दलों को भरसक डिजिटल सभाओं से संतोष करना पड़ेगा। जो कमी रहेगी,उसे राजनीतिक दलों के कार्यकत्र्तागण पूर्ण करेंगे।

डिजिटल सभाओं का क्यों न हो स्थायी प्रचलन!
इस गरीब देश में आम सभाओं और चुनावी सभाओं का डिजिटल संस्करण विकसित होने लगे तो राजनीति पर हो रहे धुआंधार खर्चों में कमी आ सकती है। वे पैसे गंभीर व ईमानदार राजनीतिक कार्यत्र्ताओं को जीवन निर्वाह भत्ता देने के काम आ सकते हैं। इससे संभवतः राजनीति में शुचिता लाई जा सकेगी। आज तो अधिकतर राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं को अपने जीवन निर्वाह के लिए ‘‘तरह-तरह’’ के काम करने पड़ते हैं। या फिर किसी ‘‘उम्मीद’’ में उन्हें अपने घर का आटा गीला करना पड़ता है। जो टिक नहीं पाते ,वे राजनीति को बीच में ही छोड़कर किसी अन्य काम में लग जाते हैं।

अनेक कार्यकत्र्ताओं को राजनीति में बनाए रखने के लिए उन्हें सांसद-विधायक फंड की ठेकेदारी दिलवा दी जाती है। ठेकेदार -सह – राजनीतिक कार्यकत्र्ता राजनीति की बेहतर छवि पेश नहीं करते। अनेक संासद-विधायकों का तर्क है कि सांसद-विधायक फंड को बनाए रखने की मजबूरी है। क्योंकि उसी से राजनीतिक कार्यकत्र्ताओं के गुजारे के लिए कुछ पैसे निकलते हैं। पर, बड़ी- बड़ी खर्चीली जन सभाओं और चुनावी सभाओं पर होने वाले खर्चे के पैसे बचाकर कार्यकत्र्ताओं को दिए जाएं तो क्या हर्ज है ? इसलिए जो सभाएं डिजिटल माध्यमों से संभव हों, उनसे शुरूआत तो हो जाए !

(वरिष्ठ पत्रकार सुरेन्द्र किशोर के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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