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नन्हे वियतनाम ने चीन के पहले महाबली अमरीका को खदेड़ चुका है

तो जान लीजिये कि वियतनाम (एक दिया) अमरीका (तूफान) से कैसे टकराया और जीता था|

New Delhi, Jun 30 : नरेन्द्र मोदी के कुछ देशी आलोचक हर्षित हैं, बड़े प्रमुदित हैं, कि नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका, बांग्लादेश आदि की चीन से यारी प्रगाढ़ हो रही है| इस हद तक नफरत की जा सकती है, राष्ट्रहित के विरुद्ध जाकर ! उन्हें याद दिलाना होगा कि चीन का पड़ोसी कम्युनिस्ट वियतनाम भारत का अटूट समर्थक है| साथ में ताईवान गणराज्य, बागी हांगकांग, जापान और दक्षिण कोरिया भी| चीन तो वियतनाम से जंग लड़ चुका है|

अतः कैसे नन्हे वियतनाम ने चीन के पहले महाबली अमरीका को खदेड़ चुका है| वियतनाम की शौर्यगाथा का जिक्र हो जाय ताकि चीन भी समझ ले कि वह भारत के पड़ोसियों को बरगला सकता है, तो उससे सटे हुए पड़ोसी मंगोलिया, ताजातरीन रूस (पुतिन वाला) और वियतनाम भी भारत के पक्षधर हैं|
तो जान लीजिये कि वियतनाम (एक दिया) अमरीका (तूफान) से कैसे टकराया और जीता था|

पहली मई बयालीस वर्ष पूर्व की बात है। वामनाकार वियतनाम ने दैत्यनुमा अमरीका को स्वभूमि को मुक्त कराया था। सवा सौ सालों के विभिन्न साम्राज्यवादियों (फ़्रांस मिलाकर) से वह लड़ता रहा। मगर अमरीका आखिरी नही था। कम्युनिस्ट वियतनाम की जनसेना ने विस्तारवादी चीन की जलसेना को भी ढकेल दिया था, अमरीकी वायुसेना की ही भांति। आजादी अक्षुण्ण रखी। उसके दशकभर (1965-75) की जंगे आजादी में कई भारतीयों का क्रियाशील योगदान रहा। मुम्बई के फ्लोरा फाउन्टेन के हुतात्मा चौक पर बम्बई यूनियन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स के हम युवा सदस्य हथेलियां साथ बांधकर, श्रृंखला बनाकर नारे गुंजाते थे, “तुम्हारा नाम वियतनाम, हमारा नाम वियतनाम। हम सबका है वियतनाम|” अमरीकी वैभव से चौंधियाये बम्बइया लोगों ने भी तब जाना कि नवउपनिवेशवाद फिर एशिया पर छा रहा है। मगर हमारा संघर्ष बिखर गया। क्योंकि वियतनाम की स्वतंत्रता की भांति हम लोग तब हंगरी, पोलैण्ड, चैकोस्लोवाकिया की सोवियत साम्राज्यवाद तले कराहती जनता की रोटी और आजादी की लड़ाई को वियतनाम के मुक्ति संघर्ष से जोड़कर दासता के विरूद्ध अभियान बनाना चाहते थे। अर्थात कथित प्रगतिशील लोग टूट गये| क्योंकि उनका मानना था कि कम्युनिस्ट राष्ट्र (सोवियत संघ) कभी भी विस्तारवादी नही हो सकता है। पर उनकी मान्यता झुठला दी गई। बस नव स्वतंत्र वियतनाम के तीन ही वर्ष (1979) हुये थे। जनता पार्टी के विदेश मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी चीन के दौरे पर (फरवरी 1979) थे। बीच में छोड़ कर भारत लौट आये| क्योंकि भीमकाय चीनी ड्रैगन ने तिब्बत की भांति वियतनाम को निगलने का प्रयास किया था। आक्रमण कर दिया था। कांग्रेसी हो, चाहे जनसंघी, हर भारतीय को संघर्षशील, बौद्ध वियतनाम से यारी रही है। प्यार रहा है।

वियतनाम फ्रांसीसी उपनिवेश था, जब दृढ़तम फ्रेंच सैन्य किले डियान बियानफू पर 1954 में वियतनामी खेतिहर श्रमिकों ने फतह पाई। विश्वभर के युद्ध निष्णात दातों तले अंगूठा चबाने लगे थे। वियतनामी सेनाध्यक्ष जनरल वोएनगुआन गियाप की रणनीति को विश्व का हर सेनापति याद रखता है। युद्ध की संरचना देखिये। अचंभा तो यह था कि राजधानी साईगान में अमरीकी फौजी रसोई की वेटर महिला और अमरीकी राजदूत का ड्राइवर वियतनामी मुक्ति संघर्ष की गुप्तचर संस्था में कार्यरत थे। अमरीकी समर्थित कठपुतली सरकार के विरूद्ध वियनामी कम्युनिस्टों का प्रचारतंत्र भी काफी दृढ़ था। स्वयं राष्ट्रपति होची मिन्ह का सूत्र था कि इस कठपुतली सरकार ने अस्पताल कम, मगर जेलें अधिक बनाई है। शराब और अफीम विक्रय केन्द्र बहुतायत में है, पर गल्ले की दुकाने नहीं हैं। त्रसित प्रजा भी संघर्ष से जुड़ गई।

इतना सब होते हुये भी आज एकीकृत मुक्त वियतनाम और संयुक्त राज्य अमरीका के पारस्परिक संबंध अत्यंत मधुर हैं। अमरीकी उद्योगपतियों ने वियतनाम में अरबों डालर का निवेश किया है। अमरीका की कोशिश है कि दक्षिण चीन समुद्र में वियतनाम को सशक्त सागरतटीय रक्षाकेन्द्र बनायें| ताकि चीन की बढ़ती सैन्य शक्ति से तटवर्ती जापान, दक्षिण कोरिया, ताइवान आदि राष्ट्रों, को सुरक्षित रखा जा सके। भारत भी इस संदर्भ में अमरीका की रणनीति से सहमत है। चीन और पाकिस्तान के गठजोड़ से भारत के सामरिक हित खतरे में पड़ गये हैं। अतः वियतनाम का सैनिक रूप से ताकतवर होना भारत के हित में ही है। कूटनीति में कहा भी जाता है कि मित्र और शत्रु शाश्वत नहीं होते। शत्रु का शत्रु हमारा मित्र है। कभी हिन्दी-चीनी भाई-भाई का नारा लगता था। स्वयं नेहरू के सामने चीन ने अरूणाचल तथा लद्दाख की जमीन हड़प ली। नरेंद्र मोदी जितना भी भारत-चीन व्यापार बढ़ाये, चीन का हिमालय पर ध्येय साफ है – बौद्ध-तिब्बत चीन की हथेली है जो जुड़ गई है। अब उसकी पांच कटी हुई उंगलियां भी जुड़नी चाहिए। इसमें अंगूठा हिन्दू नेपाल है, तर्जनी बौद्ध भूटान, मध्यमा सिक्किम, अनामिका लद्दाख और कनिष्ठा अरूणाचल है। अर्थात भारत को मानना होगा कि वियतनाम की रक्षा भारत के पूर्वोत्तर सीमा की सुरक्षा से जुड़ा है। इसीलिए यह सूत्र सामायिक है, समीचीन भी : “हमारा नाम वियतनाम, तुम्हारा नाम वियतनाम|”

(वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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