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विश्लेषण – जश्न और प्रश्न में उलझा एनकाउंटर

अफसोसजनक बात यह है कि ऐसे मामलों में सबूत मिटाने से लेकर जांच तक को येन-केन-प्रकारेण प्रभावित किया जाता है।

New Delhi, Jul 15 : कानपुर वाले विकास दुबे के अंत के साथ ही अपराधों से भरी एक लंबी कहानी का भी अंत हो गया। उत्तरप्रदेश पुलिस के 8 जवानों की हत्या के ठीक आठवें दिन विकास दुबे की कहानी का ‘द एंड’ हुआ है। आठ का अंक शनि का अंक माना जाता है, जिन्हें हमारी पौराणिक कथाओं में न्याय का देवता कहा गया है, ऐसे देवता जो इंसान को उसके कर्मों के अनुसार फल देते हैं। विकास दुबे को उसके कर्म का फल तो मिल गया, लेकिन क्या हमारी न्याय-व्यवस्था के साथ भी इंसाफ हो पाया? विकास दुबे के अपराध इतने जघन्य थे कि परिजन और करीबियों को छोड़कर उसके अंजाम पर किसी को मलाल नहीं होगा, लेकिन सवाल जरूर उठेगा कि जिस तर्ज पर उसकी मौत हुई, क्या उससे समाज का मर्ज दूर हो पाएगा? अपराधियों के ऐसे अंत से क्या अपराध का भी अंत हो पाएगा? विकास की गिरफ्तारी से जिन सफेदपोशों के होश उड़े थे, उनका इंसाफ कब होगा? एक गैंगस्टर का खेल खत्म करवाकर राज हजम कर जाने वाले सिस्टम के ‘शकुनियों’ का अंजाम क्या होगा?

विकास दुबे के अपराधों का चिट्ठा जितना काला था, उसके एनकाउंटर की कहानी भी उतनी ही स्याह है। अपने आखिरी अपराध के बाद वो छह दिनों तक चार राज्यों में ट्रक, कार, ऑटो और बाइक से घूमता रहा, लेकिन 1,200 किलोमीटर से भी ज्यादा लंबे इस सफर में यूपी पुलिस की 100 से ज्यादा टीमें और 75 जिलों की पुलिस मिलकर भी एक अकेले आदमी को ढूंढ नहीं पाई। यह संयोग नहीं हो सकता कि जिस शख्स को चार राज्यों की पुलिस अपनी तमाम नाकेबंदी के बावजूद पकड़ नहीं पाई, वो मिला भी तो उज्जैन के महाकाल मंदिर में तैनात एक सुरक्षा गार्ड को।

उज्जैन से कानपुर के बीच विकास दुबे की गाड़ी का बदला जाना, एनकाउंटर की जगह से दो किलोमीटर पहले मीडिया को रोका जाना, महज 15 मिनट बाद उसका एनकाउंटर हो जाना, प्रत्यक्षदर्शियों का गाड़ी के एक्सीड़ेंट की बात से इनकार करना, सड़क पर गाड़ी के घिसटने के निशान नहीं मिलना, वारदात के बाद सड़क पर क्रेन से गाड़ी को घसीटकर निशान बनाना, इतने बड़े एक्सीडेंट में विकास के शरीर पर खरोंच तक ना आना, दर्जनों पुलिसवालों की मौजूदगी में हथियार छीन कर उसका भाग निकलना, एक पैर में रॉड होने और लंगड़ाकर चलने के बावजूद तीन किलोमीटर तक पुलिस को छकाना, एनकाउंटर में पीठ पर नहीं बल्कि सीने पर गोली लगना ऐसे तमाम सवाल हैं जिससे पुलिस की कहानी उस चलनी जैसी दिख रही है जिसमें 72 छेद हैं।

एनकाउंटर वाले इस कथित इंसाफ से उन सवालों का भी एनकाउंटर हो गया है जो अपराधियों, पुलिस और नेताओं की सांठगांठ के राज से पर्दा उठा सकते थे। सामान्य तौर पर कोई अपराधी अपराध करता है तो पकड़ा भी जाता है, लेकिन विकास दुबे गंभीर अपराधों के बावजूद बच जाता था। आखिर उसे ऐसा रसूख किसने दिया? हमारे ही सिस्टम ने। यह तर्क विकास जैसे अपराधियों के लिए कोई संवेदना नहीं है, लेकिन 20 साल की उम्र में जब उसने पहला अपराध किया था तभी उस पर कार्रवाई हो गई होती तो कहानी कुछ और ही होती। लेकिन स्थानीय राजनीति के दबाव में मामला रफा-दफा करवा दिया गया। बाद के तीन दशकों में विकास दुबे राजनीति के अलग-अलग घाट का पानी पीता गया और अपनी ताकत बढ़ाता गया। अपराध के मामलों में पुलिस उसकी पैरवी करती थी और नेता उसे संरक्षण देते थे। कोई गुंडा थाने के अंदर मंत्री की हत्या कर दे और वहां मौजूद पांच-पांच सब इंस्पेक्टर समेत 30 जवान जुबान तक ना खोले, ऐसा ‘रुतबा’ किसी ऊपर तक पहुंच रखने वाले आदमी का ही हो सकता था। 60-60 क्रिमिनल केस होने के बाद भी वो खुलेआम घूमता था। जब तक हुकमरानों के बीच उसका सिक्का चलता रहा, वो हर सियासी दल के लिए टकसाल बना रहा, लेकिन अब जब उसका खेल खत्म हो गया है, तो हर कोई उसे खोटा सिक्का बता रहा है।

उससे जुड़े मामले की जांच शुरू होने से पहले ‘निपटाने’ में आखिर किसका फायदा था? आखिर कोई तो होगा जो चाहता होगा कि मुंह खोलने से पहले ही विकास की जुबान बंद कर दी जाए। उसके एक-एक गुर्गे के मारे जाने की कहानी भी वैसी ही है जैसी पुलिस हर एनकाउंटर के बाद सुनाती है। सात महीने पहले हैदराबाद में भी रेप और मर्डर के आरोपियों को मारने के बाद पुलिस ने इसी अंदाज में अपनी ‘वीरता’ का बखान किया था। केवल हैदराबाद ही क्यों, साल 2005 में चंबल के कुख्यात डाकू निर्भय सिंह का मामला हो या 2007 में यूपी के सबसे खूंखार डकैत ददुआ की मौत हो, 1982 में मुंबई का गैंगस्टर मान्या सुर्वे हो या 2016 में भोपाल की जेल से भागे सिमी के 8 आतंकी हों, हर एनकाउंटर में तीन समानताएं हैं – पहली सियासी कनेक्शन, दूसरी सवालों का अब तक सवाल बने रहना और तीसरी पुलिस का लाइसेंसशुदा बदमाशों की तरह काम करना।

तो क्या पुलिस को कानून के तहत अपराधियों को मारने का अधिकार मिल गया है? लेकिन बिकरू गांव में तो इसके ठीक उलट हुआ था। विकास दुब को पकड़ने गई पुलिस को अपने आठ साथी गंवाने पड़े थे। तो क्या विकास का मारा जाना उसी घटना का बदला है? फिर नया सवाल उठता है कि क्या पुलिस का काम बदला लेना है? अगर पुलिस ही ऐसे ‘इंसाफ’ पर उतारू हो जाएगी और न्याय का पैमाना ‘मांग’ और ‘आक्रोश’ ही बन जाएंगे, तो फिर हमने अदालतें किस काम के लिए बनाई हैं?
अफसोसजनक बात यह है कि ऐसे मामलों में सबूत मिटाने से लेकर जांच तक को येन-केन-प्रकारेण प्रभावित किया जाता है। ऐसे अनुभवों को देखते हुए ही सुप्रीम कोर्ट ने साल 2014 में एनकाउंटर से जुड़ी जांच के लिए अपनी ओर से गाइडलाइन जारी की थी। इसके मुताबिक एनकाउंटर में पुलिस किसी वजह से गोली चलाती है या कस्टडी में आरोपी की मौत हो जाती है, तो संबंधित थाने को एफआईआर दर्ज करनी होगी और जांच किसी और थाने की पुलिस करेगी। पुलिस और सत्ता के गठजोड़ की बानगी देखिए कि विकास दुबे के मामले को देख रही एसटीएफ में वही अफसर शामिल हैं, जिसने दो साल पहले उस पर कोई कार्रवाई नहीं की थी।

हमारे सिस्टम के काम करने का यह तरीका कोई नया नहीं है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के तत्कालीन अध्यक्ष जस्टिस जीपी माथुर ने तो साल 2010 में ही अपराधियों को मारे जाने की जांच में पुलिसिया कार्रवाई पर सवाल उठाए थे। आयोग की ही रिपोर्ट बताती है कि साल 2000 से 2017 के बीच देश में 1,782 फर्जी एनकाउंटर हुए, जिसमें से 794 यानी करीब 45 फीसद अकेले यूपी में हुए। मार्च 2017 से जुलाई 2018 के बीच यूपी में तीन हजार से ज्यादा एनकाउंटर में करीब 75 अपराधियों के मारे जाने का दावा किया गया और यूपी सरकार ने इसे गणतंत्र दिवस समारोह में उपलब्धि की तरह पेश किया।

बेशक हर सरकार की अपनी कार्य़शैली हो सकती है, लेकिन हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सिस्टम से बाहर समाधान ढूंढना खतरनाक भी हो सकता है। विकास दुबे जैसे बदमाश अपराधियों, नेताओं और पुलिस के गठजोड़ के ऐसे अहम किरदार होते हैं, जिन्हें साठ-गांठ से पर्दा उठने की जरा सी आशंका पर रास्ते से हटा दिया जाता है। हो सकता है कि विकास दुबे अगर अदालत में जिंदा पेश होकर मुकदमे से गुजरता, तो अब दफन हो चुके राज का खुलासा होता, सिस्टम के भेदियों का इंसाफ होता और शायद शहीद पुलिसकर्मियों को सही मायनों में न्याय भी मिलता। अफसोस कि हमने यह मौका गंवा दिया।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र राय के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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