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शरीफ पटाखे और बदमाश पटाखे

वैज्ञानिक दृष्टि बोध से लैस भैय्या जी जोशी ने कहा— सारे पटाखे प्रदूषण नहीं फैलाते हैं। प्रदूषण फैलाने वाले पटाखों की पहचान होनी चाहिए।

New Delhi Oct 19 : जाने-माने व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई याद आये, जब पटाखा बैन पर अपना ज्ञान देने के लिए आरएसएस के वरिष्ठ नेता भैय्याजी जोशी कैमरे पर आये। परसाई ने लिखा था— जिस तरह संघियों का अपना इतिहास होता है, उसी तरह उनका अपना विज्ञान भी होता है। तो वैज्ञानिक दृष्टि बोध से लैस भैय्या जी जोशी ने कहा— सारे पटाखे प्रदूषण नहीं फैलाते हैं। प्रदूषण फैलाने वाले पटाखों की पहचान होनी चाहिए। मैने टीवी स्क्रीन को ही भैय्या जी जोशी के चरण मानकर अपना शीश नवाया। इतना बारीक वैज्ञानिक विश्लेषण! अपन तो सोचते थे कि पटाखा तो पटाखा होता है। हर पटाखे में बारूद भरा होता है। हर पटाखे को आग लगाई जाती है। बारूद जलता है और धुआं हवा में फैलता है। फिर प्रदूषण के नियमों का पालन करने वाले शरीफ पटाखे और पर्यावरण की धज्जियां उड़ाने वाले बदमाश पटाखे अलग-अलग किस तरह हो सकते हैं?

यह विभाजन कुछ वैसा ही है, जैसे एक ही तरह के आचरण करने वाले कुछ लोगो को देशभक्त और कुछ को देशद्रोही बताना। देशभक्त और देशद्रोहियों के विभाजन के मामले में संघ का नज़रिया बहुत स्पष्ट है। वहां साफ-साफ बता दिया जाता है कि अमुक व्यक्ति देशभक्त है और फलां देशद्रोही। लेकिन पटाखों के मामले में ऐसा नहीं हुआ। कौन से पटाखे पर्यावरण के सच्चे हितैषी होते हैं, यह रहस्य अपने मन में लिये-लिये ही भैय्याजी जोशी टीवी कैमरे से प्रस्थान कर गये। अगर बता दिया होता दिल्ली एनसीआर में रहने वाले सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाते और कहते, जज साहब हमारी दिवाली फीकी मत कीजिये।फलां-फलां पटाखो से बैन हटा दीजिये क्योंकि संघ ने बताया है कि इनसे प्रदूषण नहीं होता है। इस देश में संघ के वैज्ञानिक दृष्टिकोण को भला चुनौती कौन दे सकता है? इसलिए बहुत संभव था कि जज साहब दलील मान जाते।

पटाखे इंसान नहीं होते। अगर इंसान होते तो अब तक पटाखों की दुनिया में इस बयान के बाद अब तक दंगा फैल गया होता। चंद बदमाश पटाखों की खातिर पर्यावरण प्रिय पटाखे बदनामी क्यों मोल लेते। वे बदमाश पटाखो को देश के भगाने के लिए आंदोलन छेड़ देते। नाराज़गी बढ़ती तो शरीफ पटाखे बदमाश पटाखों को आग लगा देते और उसी आग में खुद भी दिवाली से पहले जल मरे होते। शुक्र है, पटाखे इंसान नहीं होते। अगर पटाखे इंसान होते तो उनके बीच अच्छे वालों की लिस्ट में शामिल होने की पॉलिटिक्स शुरू हो जाती। बदमाश पटाखे शराफत का सार्टिफिकेट लेने के लिए मुट्ठी गर्म करने लगते। अपना नाम एक लिस्ट हटवाकर दूसरी में डलवाने की वैसी ही होड़ मच गई होती, जैसी बांग्लादेशी घुसपैठियों में राशन कार्ड बनवाने को लेकर होती है।

अगर पटाखे इंसान होते कुछ खास किस्म के पटाखो को मिलने वाले विशेषाधिकार के खिलाफ वे आंदोलन चलाते। जिन पटाखों को `अच्छी’ श्रेणी में नहीं रखा जाता वे बकायदा मोर्चा निकालते। हरियाणा के जाट और गुजरात के पाटीदारों की तरह रिजर्वेशन लिस्ट में शामिल होने के लिए मोर्चा निकालते। भीड़ भरी ट्रेन और बाजार में अपने आप कहीं भी फट पड़ते। गनीमत है, पटाखे इंसान नहीं होते। रह-रहकर दिमाग में अब भी वही मूल सवाल चल रहा है, आखिर वे कौन से पटाखे हैं, जिनसे प्रदूषण नहीं होता है? थोड़ा-बहुत प्रदूषण तो प्रकृति प्रदत्त पटाखो से भी होता है। कुदरती पटाखे दो-तीन तरह के होते हैं। पहली श्रेणी उन पटाखो की होती है, जिनमें बहुत जोर की आवाज होती है। उनसे सिर्फ ध्वनि प्रदूषण होता है। दूसरी श्रेणी उन पटाखो की होती है, जिनमें आवाज तो नहीं होती है, लेकिन बदबू इतनी तेज होती है कि आसपास खड़े लोग भाग जाते हैं। ऐसे पटाखो से सिर्फ वायु प्रदूषण होता है। तीसरी श्रेणी उन पटाखो की होती है, जिनमें आवाज़ भी होती है और बदबू भी। यानी ध्वनि और वायु प्रदूषण एक साथ। यानी प्रकृति प्रदत्त पटाखे की प्रदूषण मुक्त नहीं है तो फिर कागजो में बारूद भरकर इंसान जिन पटाखो को बनाता है, वे प्रदूषण मुक्त कैसे हो सकते हैं?

खैर प्राकृतिक पटाखों का मुद्धा होली के लिए रखा जाये तो बेहतर है। दिवाली तो वैभव के प्रदर्शन का पर्व है। पूरा देश एक रात में सैकड़ो करोड़ रुपये स्वाहा कर देता है। लेकिन आतिशबाजी के साथ एक तरह का उत्सवधर्मिता एक आनंद का भाव जुड़ा हुआ है, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है। ऐसे में पटाखों पर पूरी तरह रोक का सुप्रीम कोर्ट का फैसला कुछ लोगो को नागवार गुजरा है, तो उनकी भावनाएं एक हद तक जायज हैं। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू भी है। दिल्ली एनसीआर में सर्दियों में प्रदूषण इतना बढ़ जाता है कि कई बार स्कूल तक बंद करने की नौबत आ जाती है। दिल्ली सरकार ने इसी चक्कर में इवेन ऑड जैसा अलोकप्रिय कार्यक्रम शुरू करना पड़ा था, जिसमें एक दिन सड़क पर एक ही तरह के नंबर की गाड़ियों को चलाने की इजाज़त दी गई थी। इसलिए प्रदूषण पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता भी पूरी तरह वाजिब है।

लेकिन सवाल ये है कि क्या किसी भी चीज़ पर रातो-रात बैन कर देना एकमात्र हल है? आपको हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कई निर्णय मिल जाएंगे जिनमे यह कहा गया है कि फैसला सुनाते वक्त जनभावनाओं का ध्यान रखा गया है। जब जनभावनाओं का ध्यान किसी क्रिमिनल केस में रखा जा सकता है तो फिर पटाखो के मामले में क्यों नहीं? मामला सिर्फ जन-भावना का नही बल्कि हज़ारो लोगो की रोजी-रोटी का भी है, जिन्हे यह पता नहीं था कि पटाखो पर रोक लगने वाली है। वे अपनी जमा-पूंजी लगाकर पटाखे ले आये और बिक्री पर रोक के बाद उनका पूरा पैसा डूबने के कगार पर है। अदालती फैसले से जुड़ी सबसे अहम बात यह है कि भारत जैसे जटिल देश में कोई फैसला देते वक्त कोर्ट को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह लागू होने लायक है या नही। कोर्ट ने कहा है कि जो पटाखे पहले से बिक चुके हैं, उन्हे चलाने पर रोक नहीं होगी। अब यह कौन तय कर सकता है कि पटाखे पहले बिके थे या कोर्ट का फैसला आने के बाद बिके हैं।

माननीय न्यायधीशों को इस तथ्य पर गौर करना चाहिए कि अगर अदालत कोई फैसला देती है और अगर वह लागू नहीं हो पाता है, तो इससे कोर्ट की साख पर असर पड़ता है। कोर्ट की साख पर असर का मतलब है, न्याय व्यवस्था के प्रति लोगो की आस्था का कमज़ोर होना। सीधे-सीधे कहें तो इससे पूरा सिस्टम कमज़ोर होता है। बेहतर यह होता कि अदालत सरकार को आदेश देती कि वह ऐसे कदम उठाये जिससे पटाखो का इस्तेमाल धीरे-धीरे कम हो। फैसला अदालत का है, लेकिन इसके आते ही फिर से हिंदू मुसलमान शुरू हो गया है। सवाल पूछा जा रहा है कि हिंदुओं के त्यौहार पर ही कोर्ट का फैसला क्यों? सवाल बहुत बेहद मासूमियत भरा है। वैसे पटाखों पर रोक से मुसलमानों के एक तबके को भी अच्छा-खासा दर्द हुआ है। पटाखे बनाने से लेकर बेचने तक के काम में उनकी अच्छी-खासी भागीदारी है।

जो लोग पटाखा बैन को हिंदू भावनाओं के साथ जोड़ रहे हैं, मैं पूरी तरह उनके साथ हूं। पटाखो से निकलने वाला धुंआ सिर्फ अहिंदुओं के फेफेड़ो में उतरता है। अगर बारूदी हवा में सांस लेने के बाद कोई हिंदू खांसने लगे तो वह सच्चा हिंदू नहीं है। दिल्ली में हर साल दिवाली के बाद जिन हज़ारो बच्चो को अस्थमा का अटैक आता है, उनमें एक भी हिंदू नहीं होता है! अगर हिंदू हो भी तो क्या। पैसा हिंदू का, फेफड़ा हूिंदू का तो फिर रोकने वाली अदालत कौन होती है? कोर्ट के आदेश के बावजूद दिल्ली में यहां-वहां आतिशबाजी खूब बिक रही है। इच्छा हो तो ले आइये और कोर्ट के फैसले को पलीता लगाइये। वैसे आप चाहें तो शरीफ पटाखो की लिस्ट माननीय भैय्याजी जोशी से भी प्राप्त कर सकते हैं। (वरिष्‍ठ पत्रकार राकेश कास्‍यथ के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं।)

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