New Delhi, Feb 28 : बॉलीवुड एक्ट्रेस श्रीदेवी नहीं रही, सत्तर के दशक के बाद की पीढ़ी को जितना साहित्य और धार्मिक कथाओं ने नहीं गढ़ा, उसके कहीं अधिक फिल्मों ने गढ़ा है. इनमें दीवार, आनंद, शोले, सदमा, मिस्टर इंडिया, अराधना से लेकर मैंने प्यार किया, दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे, लगान और बाद में मुन्ना भाई एमबीबीएस, चक दे इंडिया, थ्री इडियेट्स, दिल चाहता है जैसी सैकड़ों फिल्मों हैं.
इन फिल्मों के चरित्रों ने हमारे दिल को वहां जाकर छुआ, जहां किसी की पहुंच नहीं थी. पहुंचना आसान भी नहीं था. हम गुनाहों का देवता के सुधा और चंदर नहीं, ‘दिलवाले दुल्हनियां ले जायेंगे’ के राज और सिमरन के अधिक करीब हैं.
यही वजह है कि फिल्में, उनके चरित्र और अभिनेता हमारे दिल के करीब हैं. फिल्मी गानों में हम अपने सुख और दुख को, मुहब्बत और बिछड़न को तलाशते हैं,
इसलिए हम केरल के उस युवक की हत्या पर कम रोते हैं, क्योंकि केरल के युवक की घटना हमें झकझोरती है, गुस्सा दिलाती है, मगर हमारा कोई पर्सनल अटैचमेंट नहीं है. हम चाहते हैं कि ऐसी घटनाएं बंद होनी चाहिये, दुनिया बदलनी चाहिए. हम उस युवक में अपने किसी परिचित की छवि ढूंढते हैं, किसी अनुभव को तलाशते हैं. मगर एक क्षण के बाद, कुछ देर गुस्सा जाहिर करने के बाद हम उस अनुभव से मुक्त हो जाते हैं. मगर श्रीदेवी हमें पल-पल याद आती है. जूली से लेकर मॉम तक. एक-एक छवि, एक-एक अटैचमेंट. ऐसा लगता है कि अपने किसी मित्र, परिचित या रिश्तेदार को हमने खो दिया है.
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