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जो चीजें कभी गरीबों-मजदूरों की बेबसी की प्रतीक थीं, वो अब शहरी जिंदगी का गहना बन रही हैं

शहरों में तो ज्यादातर लोगों ने तीसी का नाम ही नहीं सुना होगा। खैर, गांव में दुत्कारी हुई तीसी शहर में ‘फ्लेक्ससीड’ यानी अलसी के अवतार में आ चुकी है।

New Delhi, Mar 07 : ‘सूरत और सीरत में एतनै बा मेल। जइसे हेमा के मूड़ी पे तीसी क तेल।’ जबसे होश संभाला, इंसान की सूरत और सीरत पर बाबूजी की ये दो लाइनें उनसे कई बार सुनी हैं। बाकी छोड़ दीजिए, बात तीसी के तेल पर हो रही है। दो लाइनों से ही साफ है कि तीसी का तेल हेय समझा जाता था। सरसों महंगा था, जबकि तीसी सस्ता। बड़े लोगों के घरों में सरसों का तेल इस्तेमाल होता था, जबकि तीसी के तेल का इस्तेमाल गांव में निम्न आय वर्ग के लोग करते थे। कम लागत, कम सिंचाई में फसल हो जाती थी, इसी नाते बोया जाता था, बाद में तो हमारे यहां इसका बोना भी करीब करीब बंद हो गया। शहरों में तो ज्यादातर लोगों ने तीसी का नाम ही नहीं सुना होगा। खैर, गांव में दुत्कारी हुई तीसी शहर में ‘फ्लेक्ससीड’ यानी अलसी के अवतार में आ चुकी है। बहुचर्चित, बहुप्रचारित। अभी मेरे यहां भूनी हुई यही तीसी करीब 300 रुपये में आधे किलो आई है। गांव में पहले जिसे कोई पूछता नहीं था, शहरों में अब मल्टीनेशनल कंपनियां उसे चमचमाते डिब्बों में बेच रही हैं।

शहरों में कई चीजों के भाग्य बदल गए। हमारे यहां मक्का बोया जाता था। जब तक भुट्टा रूप में होता, लोग भूनकर खाते, पकने पर उसका ज्यादातर इस्तेमाल या तो जानवरों के लिए होता या फिर मजदूरों, नौकरों की नहारी में मक्के का भूजा जाता। अब मल्टीप्लेक्स में इस मक्के को नया जीवन और नया नाम मिल गया है-पॉप कॉर्न । किसानों को मक्के की कीमत 20 रुपये किलो भी नहीं मिल पाती, लेकिन पॉप कॉर्न हजारों रुपये किलो बिकता है। सिनेमा देखने जाओ तो नई पीढ़ी इस ‘मकई के लावा’ के लिए ऐसे मचलती है, जैसे चूहे को देखकर बिल्ली मचलती है। मैं किसान का बेटा हूं, मल्टीप्लेक्स में पॉपकॉर्न एक तो जल्दी खरीदता नहीं, अगर खरीदना पड़ ही जाए तो लगता है कि सबसे बड़ा ‘पाप’ कर रहा हूं।

शहरों में आलीशान जिंदगी जीने वाले अब गांवों की उन चीजों की तरफ जाने के लिए अभिशप्त हैं, जिन्हें उनके पुरखों ने कभी भाव ही नहीं दिया। मोटापे से बचना है तो दलिया खाना है। पहले दलिया मजदूरों को खिलाया जाता था। बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में तो चावल को ही बड़े घरों में खाद्यान्न की मान्यता मिली थी, रोटी तो मेहनतकशों के लिए था, लेकिन अब हर-हर रोटी-घर-घर रोटी। सेहत का भंडार मट्ठा और छाछ भी पैकेट में बंद होकर घरों में पहुंच गया है। चीनी मना है, अब ‘शक्कर’ खाइए। गांवों में आधे पौने दामों में बिकने वाली खांड, पैकेटों में बंद होकर ‘ब्राउन शुगर’ बन गई है। पैकेट में पहुंच कर गुड़ अब ‘जागरी’ बन गया है, गुड़ और खांड दोनों बहुतै भाव खा रहे हैं।
वक्त का फेर देखिए, गांव के गरीबों-मजदूरों के घरों में चार पांच तरह के अनाजों को मिलाकर आटा बनता था, उसकी मोटी रोटी को ‘मकुनी’ कहते थे। आसानी से ये खाया भी नहीं जा सकता था। कहावत कही जाती थी-धोबिया क बिटिया बड़ी सुकुआरि, भुजिया क भात नाहीं खाय, एक दिन धोबिया उठवलसि मुंगड़ी, मकुनी ढकेलले जाय। (धोबी की बेटी इतनी सुकुमार थी कि भुजिया चावल का भात नहीं खाती थी, एक दिन धोबी ने मारने के लिए मुंगड़ी उठाई तो अब मकुनी भी धड़ाधड़ खाने लगी।)। अब हाल देखिए भुजिया चावल ‘ब्राउन राइस’ बनकर अरवा चावल के ऊपर चढ़ा है, सेहत के लिए शहरों के घर-घर में पहुंच रहा है, बहुत डिमांड में है। मकुनी वाला आटा अब फरमाइश पर बनवाया जा रहा है यही पंचमेल आटा बेचकर बाबा रामदेव अपना भंडार भर रहे हैं। शुगर के मरीजों के लिए तो गेहूं का आटा मना ही हो गया है।

मेरे खुद के गांव में ज्वार और बाजरे की रोटी बड़ी हेय दृष्टि से देखी जाती थी। इसे उगाया जाता था तो बस पशुओं के चारे के लिए और अब देखिए ज्वार-बाजरा के आटे की कीमत गेहूं से दोगुनी हो गई है। पहले तो मजदूर भी बड़ी मुश्किल से खाते थे, अब अरबपतियों के किचेन में ज्वार-बाजरा की रोटियां बन रही हैं। मेरे ननिहाल प्रतापगढ़ में ज्वार और बाजरा ही मुख्य फसल थी, कई दशक पहले जब मेहमान आते थे तब चावल और गेहूं के आटे का इंतजाम किया जाता था। अब वहां भी गेहूं-चावल पैदा होने लगा, ज्वार-बाजरा बोना करीब करीब बंद हो गया। और हां, जई तो हम भूल ही गए। जौ जैसी जई को अब जई मत कहिए, ओट्स कहिए ओट्स। हेल्दी डाइट का पर्यायवाची बन गया है ओट्स। जो चीजें कभी गरीबों-मजदूरों की बेबसी की प्रतीक थीं, वो अब शहर की चमकती दमकती जिंदगी का गहना बन रही हैं। दो-तीन दशकों में जिंदगी ने ये कैसा यू टर्न मारा है..?

(वरिष्ठ पत्रकार विकास मिश्र के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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