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पुरस्कार की राजनीति होती है और राजनीति के पुरस्कार होते हैं

बाज़ार की इजाज़त तब मिलती है, जब कोई किताब बेस्ट सेलर होकर, पेंटिंग या म्यूज़िक एलबम बाज़ार के सर चढ़कर करोड़ों-अरबों का कारोबार कर ले जाते हैं।

New Delhi, May 08 : साहित्य, पेंटिंग, शास्त्रीय संगीत आदि जैसी सूक्ष्म कला पढ़ने-समझने और रचने वालोंं के लिए टेलीविज़न के पर्दे पर लगभग सन्नाटा होता है। ये सन्नाटा कभी-कभी बाज़ार की इजाज़त से ही टूट पाता है। बाज़ार की इजाज़त तब मिलती है, जब कोई किताब बेस्ट सेलर होकर, पेंटिंग या म्यूज़िक एलबम बाज़ार के सर चढ़कर करोड़ों-अरबों का कारोबार कर ले जाते हैं। ज़ाहिर है, उन रचनाओं में लोकप्रियता के तत्व होते हैं, ज़्यादातर लोगों को लुभाने में वो सफल होते हैं, क्योंकि उसमें सामयिकता की आवाज़ भी होती है, इसलिए उसमें सहजता भी होती है।

दूसरी तरफ़ इन रचनाओं की चर्चा तब भी होती है, जब यह राजनीति की बांह पकड़कर खड़े होते हुए अपना ताल ठोक देती है। इसमें पुरस्कृत रचनायें होती हैं। पुरस्कार की राजनीति होती है और राजनीति के पुरस्कार होते हैं। इन दोनों के बीच संतुलन बनाकर जो रचनायें सामने आती हैं, टेलीविज़न उसकी भी सूचना देने को आतुर रहता है। इस आतुरता के पीछे टेलीविज़न (एक हद तक सभी त रह के मीडिया) का अपना वित्तीय समीकरण कार्य कर रहा होता है।कुल मिलाकर पुरस्कार से लेकर बिकने तक की पैकेजिंग होती है। फ़ायनाइसियल सर्किल में एक बार आने के बाद रचनायें, टेलीविज़न या अन्य तमाम तरह के संचार साधनों के बीच चर्चित होने का माद्दा हासिल कर लेती हैं।

साहित्य,पेंटिंग्स और संगीत की शास्त्रीय रचनायों के लिए न सिर्फ़ गहरायी की दरकार होती है,बल्कि पाठक,श्रोताओं और दर्शकों को अपनी नज़रें निरंतर माजनी पड़ती है। हालांकि मीडिया के मूलभूत तीन कार्यों में से एक कार्य लोगों को सूचनायें देना और उन सूचनाओं के भीतर मौजूद अनेक तत्वों से कई कोनों से की गयी व्याख्या से अपने दर्शकों,पाठकों और श्रोताओं को शिक्षित करना भी होता है। टेलीविज़न की भूमिका गहरे स्तर पर छिछला दिखती है।मगर जब नामवर सिंह का साक्षात्कार एनडीटीवी पर आता है,तो सुखद लगता है,क्योंकि नामवर सिंह को वो ही लोग जानते हैं,जो या तो उच्च शिक्षा जगत से जुड़े हैं,या फिर जिनकी दिलचस्पी साहित्य की शास्त्रीयता और उसकी समझ में है।

एनडीटीवी पर आये उनके साक्षात्कार के विषय वस्तु, साक्षात्कार लेने वाले पर तैयारी नहीं करके नामवर सिंह जैसे शिखर शख़्सियत से साक्षात्कार लेने का आरोप-प्रत्यारोप,नामवर सिंह को नंगा या वस्त्र पहना देने जैसी ‘नीच-ऊंच’ समालोचना की चर्चा सोशल मीडिया पर पहले ही पर्याप्त रूप से हो चुकी है।मगर,मुझे लगता है कि अगर टेलीविज़न पर सहज सवालों के साथ साहित्य,पेंटिंग्स या संगीत से जुड़ी शख़्सियत से सरल भाषा में गहरी बात की जाय,तो सामाजिक और राजनीतिक चेतना को बढ़ावा मिलेगा। मौजूदा दौर में जो राजनीतिक-सामाजिक-सांस्थकृतिक मंथन चल रहा है,न सिर्फ़ उसकी गति में साकारात्मक बदलाव आयेगा,बल्कि ऐसे रेशे भी ख़ुलते-जुड़ते जायेंगे,जिनसे देश-समाज को नई दिशा मिल सकती है;रचनात्मक रूप से आम लोगों की मानसिक दशा बदल सकती है।

(वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र चौधरी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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