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प्रणब दा से जुड़े तथ्य उनके प्रशंसक और विरोधी दोनों ही जाने-अनजाने भूल जाते हैं

झूठा हलफनामा देकर प्रणब दा का नाम गुजरात की मतदाता सूची में दर्ज कराया गया और उन्हें वहां से राज्यसभा का सदस्य चुना गया।

New Delhi, Jun 07 : प्रणब मुखर्जी आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में भाग लेने की वजह से चर्चा में हैं। संघ के कार्यक्रम में जाकर वे जो गलती कर रहे हैं उस बारे में उनकी बेटी शर्मिष्ठा ने उन्हें अच्छी खासी नसीहत दे ही दी है, लेकिन प्रणब दा से जुड़ा एक तथ्य उनके प्रशंसक और विरोधी दोनों ही जाने अनजाने में भूल जाते हैं। वह तथ्य है प्रणब दा द्वारा देश के संविधान और चुनाव कानूनों को ठेंगा दिखाए जाने का।

इसके लिए हमेँ देश के चुनावी इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे। यह बात 1981 की है। तब पश्चिम बंगाल विधानसभा में कांग्रेस की हालत बहुत पतली थी। वह वहां से राज्यसभा के लिए अपना उम्मीदवार चुनवा पाने की स्थिति में नहीं थी। इंदिरा गांधी प्रणब दा को किसी भी स्थिति में राज्यसभा में लाना चाहती थीं।
तब इंदिरा गांधी के सलाहकारों ने प्रणब दा के लिए चोर दरवाजा खोला। झूठा हलफनामा देकर प्रणब दा का नाम गुजरात की मतदाता सूची में दर्ज कराया गया और उन्हें वहां से राज्यसभा का सदस्य चुना गया। इस तरह प्रणब दा ने एक पूरे कार्यकाल तक राज्यसभा में गुजरात का प्रतिनिधित्व किया। इस नाते वे गुजरात से अपने खास संबंधों की बात भी कई बार दोहरा चुके हैं।

सवाल है कि क्या गुजरात की मतदाता सूची में प्रणब दा का नाम दर्ज कराने की पूरी प्रक्रिया तत्कालीन चुनाव कानून-नियमों के तहत सही थी। क्या चुनाव आयोग ने प्रणब दा की इस चुनावी जालसाजी की जानबूझकर अनदेखी नहीं की थी? क्या तत्कालीन विपक्ष ने इस मुद्दे को इसलिए गंभीरता से नहीं लिया था कि उसे अपने लिए भी यह चोर दरवाजा मुफीद लगता था? संविधान निर्माताओं ने राज्यसभा को राज्यों के सदन की भी संग्या दी थी। क्या प्रणब दा का यह कृत्य संविधान निर्माताओं की भावनाओं का मखौल उड़ाना नहीं था?
प्रणब दा ने 1981 में राज्यसभा में पहुंचने के लिए जिस चोर दरवाजे का इस्तेमाल किया, बाद में उस चोर दरवाजे का इस्तेमाल कम से कम दो प्रधानमंत्रियों, दर्जनों मंत्रियों और 50 से ज्यादा सांसदों ने भी किया। मनमोहन सिंह और इंद्रकुमार गुजराल के नाम असम और बिहार की मतदाता सूची में झूठे हलफनामों के आधार पर ही जोड़े गए।

लंबे समय तक पीएम इन वेटिंग रहे लालकृष्ण आडवाणी का नाम भी इसी रास्ते से गुजरात की मतदाता सूची में जुड़ा। आज भी उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू, वित्त मंत्री अरुण जेटली और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के नाम जिन राज्यों की मतदाता सूची में शामिल हैं वहां व्यावहारिक तौर पर वे कभी रहे ही नहीं। माकपा महासचिव सीताराम येचुरी ने भी राज्यसभा आने के लिए अपना नाम बंगाल की मतदाता सूची में दर्ज कराया था। और तो और, ईमानदारी के सबसे बड़े स्वंयभू ठेकेदारों में एक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का नाम भी दिल्ली की मतदाता सूची में उस पते पर दर्ज है जहां वह कभी रहे ही नहीं।
मतदाता सूची किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार होती है , लेकिन सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने आपसी मिलीभगत से उसका मखौल बना रखा है। चुनाव आयोग ने भी जानबूझकर आंखें मूंद रखी है। ऐसे लोकतंत्र को गिरोह तंत्र या ढोंग तंत्र न कहें तो क्या कहें।

(वरिष्ठ पत्रकार देवप्रिय अवस्थी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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