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किम से चर्चा ट्रम्प की प्रतिष्ठा बढ़ाएगी ?

सिंगापुर-बैठक की सारी अस्पष्टता और ट्रंप व किम की सारी अस्थिरचित्तता के बावजूद इसका लगभग सभी देशों ने स्वागत किया है।

New Delhi, Jun 17 : अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के नेता किम योंग उन की 12 जून को जो भेंट सिंगापुर में हुर्इ्, उसका अंतरराष्ट्रीय राजनीति के इतिहास में असाधारण महत्व होगा। इस भेंट की तुलना 1972 में हुई रिचर्ड निक्सन और माओ त्से तुंग की भेंट से की जा सकती है। पिछले 68 साल में इन दो राष्ट्रों के नेताओं की यह पहली भेंट है। इस भेंट की जबर्दस्त चर्चा सारी दुनिया में इसलिए भी हुई कि पिछले चार-पांच माह में दोनों देशों के नेताओं ने एक-दूसरे को इतना कोसा, इतने भद्दे शब्दों का प्रयोग किया और इतनी खतरनाक धमकियां दीं कि उन्होंने 1962 की क्यूबाई घेराबंदी की याद ताज़ा कर दी। जैसे उस समय दुनिया के सिर पर अमेरिका और रुस के परमाणु युद्ध की तलवार लटकने लगी थी, वैसा ही माहौल अब तैयार होता-सा लगने लगा। उ. कोरिया के पास अभी 60 से अधिक परमाणु बम हैं और उन्हें जापान और अमेरिका तक फेंकने के लिए प्रक्षेपास्त्र हैं। ट्रंप और किम की उम्र में बाप-बेटे के बराबर फर्क है लेकिन स्वभाव से वे जुड़वां भाई हैं। दोनों कब क्या कर बैठें, कुछ पता नहीं। दोनों ही पल में तोला और पल में माशा हो जाते हैं। यह बैठक भी रद्द होते-होते बच गई।

इसीलिए सारी दुनिया इन दोनों नेताओं की शिखर बैठक पर आंखे गड़ाए हुई थी। पांच घंटे चली यह बैठक ज्यों ही पूरी हुई, ट्रंप ने अपना ढोल पीटना शुरु कर दिया। प्रेस-परिषद में उन्होंने दावा किया कि यह बैठक विश्व-राजनीति में बदलाव कर देगी। यह विश्व-इतिहास की महान घटना है। उन्होंने किम की तारीफों के पुल बांध दिए। इसमें शक नहीं है कि जो आशाएं ट्रंप ने बंधाई हैं, यदि वे पूरी हो गईं तो विश्व राजनीति पर इस घटना का गहरा असर होगा लेकिन दोनों नेताओं ने जो संयुक्त वक्तव्य जारी किया है, उसे अगर आप ध्यान से पढ़ें तो आपको लगेगा कि वह वक्तव्य या तो काफी जल्दबाजी में तैयार कर दिया गया या फिर उसे जानबूझकर गोलमोल बना दिया गया है।

उस वक्तव्य में कहा गया है कि ‘कोरियाई प्रायद्वीप को पूर्णरुपेण परमाणुमुक्त किया जाएगा।’ पूर्णरुपेण याने क्या ? प्रायद्वीप का मतलब क्या है ? क्या सिर्फ उ. कोरिया ? या दक्षिण कोरिया भी ? यदि पूरे प्रायद्वीप को परमाणुमुक्त करना है तो उ. कोरिया का सारा परमाणु प्रतिष्ठान तो खत्म होगा ही उसके साथ-साथ दक्षिण कोरिया में तैनात अमेरिकी परमाणु छतरी और उसके 30 हजार सैनिक भी वहां से हटाए जाएंगे या नहीं ? इस प्रश्न का उत्तर न तो संयुक्त वक्तव्य में है और न ही ट्रंप के बयानों में ! इसके बिना किम अपने परमाणु प्रतिष्ठान को खत्म करने पर राजी क्यों होंगे ? यदि किम उ. कोरिया को परमाणुमुक्त करेंगे तो कैसे करेंगे, कब करेंगे, कितना-कितना करेंगे, कुछ पता नहीं। इसके अलावा ट्रंप ने जो रट लगा रखी थी कि उ. कोरिया की परमाणु मुक्ति प्रामाणिक और अटल होनी चाहिए, उसका क्या हुआ ?

संयुक्त वक्तव्य में उ. कोरिया को अमेरिका ने सुरक्षा की गारंटी भी दी है। लेकिन उसका ठोस रुप क्या होगा, यह भी अनुमान का विषय है। कोरिया में 1950 से 1953 तक जो युद्ध चला था, उसकी युद्ध-विराम संघि की जगह दोनों कोरिया के बीच कोई शांति संधि भी नहीं हुई ? दोनों कोरियाओं का विलय होगा या नहीं, इस मुद्दे पर भी कोई बात हुई या नहीं ? शायद ट्रंप इतनी दूर की बात सोचने का कष्ट भी नहीं उठाना चाहते। जैसे दो जर्मनियों ओर दो वियतनामाअें का मिलन हो गया, वैसे दो कोरियाओं का भी मिलन क्यों नहीं हो सकता ? ट्रंप की तात्कालिकता उनके लिए शायद इसलिए महत्वपूर्ण बन गई है कि उन्हें जी-7 तथा अन्य कई मोर्चों पर मात खानी पड़ी है। यदि यह सिंगापुर बैठक उस मात के असर को घटा सके तो यह भी अपने आप में उपलब्धि है। यह संतोष का विषय है कि ट्रंप ने द. कोरिया और अमेरिका के संयुक्त सैन्य अभ्यास पर रोक लगा दी है।

सिंगापुर-बैठक की सारी अस्पष्टता और ट्रंप व किम की सारी अस्थिरचित्तता के बावजूद इसका लगभग सभी देशों ने स्वागत किया है। यहां लगभग शब्द का इस्तेमाल मैंने इसलिए किया है कि सिर्फ ईरान ने इस बैठक की मजाक उड़ाई है। उसने कहा है कि ट्रंप का कुछ भरोसा नहीं। वे सिंगापुर से वाशिंगटन पहुंचते-पहुंचते पल्टी खा सकते हैं। हालांकि ट्रंप ने सिंगापुर में यह इशारा भी किया है कि ईरान के मामले को वे फिर से संभालेंगे। भारत ने इस शिखर बैठक का स्वागत करते हुए अपने एक पुराने घाव को उधेड़कर दिखा दिया है। भारतीय प्रवक्ता ने अमेरिका से अनुरोध किया है कि वह जांच करे कि भरत के पड़ौस (पाकिस्तान) का परमाणुकरण करने में उ. कोरिया का कितना हाथ रहा है ? चीन खुश है लेकिन उसे इस बात का अफसोस है कि इस समझौते में उसकी कोई भूमिका नहीं रही। उसे यह चिंता भी सतायेगी कि जैसे वियतनाम की एकता ने उसके प्रभाव में कटौती कर दी थी, वैसे ही उ. कोरिया भी उसके हाथ से निकल जाएगा। लेकिन ऐसा भी संभव है कि कोरियाई प्रायद्वीप से अमेरिकी सेना और भय के हट जाने से चीन को अपना खेल खेलने के लिए खुला मैदान मिल जाए। जापान के लिए यह चिंता का विषय बन सकता है।

पाकिस्तानी नेता और संभावित प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ ने कहा है कि यदि उ. कोरिया और अमेरिका के बीच परमाणु मसले हल हो सकते हैं तो भारत और पाक के बीच क्यों नहीं हो सकते ? मैं तो कहता हूं कि ट्रंप चाहें तो सारे विश्व में परमाणु-निरस्त्रीकरण की पहल जोर पकड़ सकती है। मुझे आश्चर्य है कि किम जैसे स्वाभिमानी और मुंहफट नेता ने ट्रंप से यह क्यों नहीं पूछा कि आप अमेरिका को परमाणुमुक्त कब करेंगे ? यह पहल तो अहिंसा के अवतार गांधी का भारत भी कर सकता है लेकिन हमारे पास ऐसी आवाज़ लगानेवाला कौन है ?

ट्रंप विश्व-निरस्त्रीकरण पर कुछ पहल करें या न करें लेकिन यदि उन्होंने कोरियाई मसला हल कर लिया तो उनके देश में राष्ट्रपति के तौर पर उनकी प्रतिष्ठा जम जाएगी। उनसे हो रहे अमेरिकी मोहभंग की गति धीमी पड़ेगी। यह ठीक है कि कोरियाई प्रायद्वीप से मुठभेड़ का परिदृश्य रातों-रात विदा नहीं होगा। उसमें समय लगेगा लेकिन आक्रामक विदेश मंत्री माइक पोंपियो और सुरक्षा सलाहकार जाॅन बोल्टन इस प्रक्रिया को अंजाम तक कैसे पहुंचाएंगे, यह अभी देखना है। यदि ट्रंप-किम समझौता सचमुच प्रामाणिक है तो उ. कोरिया पर लगे प्रतिबंधों को उठाने में ज्यादा देर लगाना उचित नहीं हेागा। दक्षिण अफ्रीका को परमाणु मुक्त करने में पांच साल का समय लगा था और डर यह भी है कि परमाणुमुक्ति के बाद कहीं किम की दशा लीब्या के मुअम्मर कज्जाफी की तरह न हो जाए।

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार डॉ. वेद प्रताप वैदिक के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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