New Delhi, Jun 25 : इमरजेंसी का विरोध हमने भी किया था। तब हम एक अखबार निकालते थे ‘नया मोर्चा’ के नाम से। यह अखबार साप्ताहिक था। 500 कापी छापते थे। लागत आती थी ढाई सौ रूपये। 8 आने फी कापी की दर से खुद ही साइकिल पर लाद कर बेच आते थे। खुद ही संपादक, खुद ही प्रकाशक और स्वयं का लिखा कंटेंट तथा हॉकर भी खुद ही। कानपुर में आईआईटी और मेडिकल कालेज के छात्र अपने रेगुलर ग्राहक थे। इमरजेंसी लग गई। हम और हमारे सारे साथी- मोना, सुमन, दिनेश आदि सब ‘यूजी’ हो गए। बाहर आए तब तक मेरी निजी ज़िन्दगी में इमरजेंसी लग चुकी थी। आज के बदतर हालात देख कर लगता है कि इस मुल्क में इमरजेंसी भी जरूरी है। इंदिरा गांधी का वह कदम एकदम सही था।
तब रिश्वत लेने से अधिकारी घबराते थे। अब तो उत्तर प्रदेश में नगर निगम, विकास प्राधिकरण और अदालतों के अंदर सीधे रिश्वत की मांग की जाती है। केंद्र का अपने को पता नहीं, क्योंकि अपना पासपोर्ट ‘फ्री’ में बना था। पत्नी के पासपोर्ट में वक़्त लगा था। चूंकि आधार कार्ड, वोटिंग कार्ड में उनका जो नाम था, वह हाई स्कूल के सर्टिफिकेट में नहीं था, इसलिए काफी कष्ट के बाद बना था। किन्तु पैसा नहीं देना पड़ा। लेकिन मैंने तन्वी सेठ और उनके पति अनस की तरह कोई प्रेस नहीं बुलाई, हंगामा नहीं किया और न ही सुषमा स्वराज के पास गया था। जो क़ानून के मुताबिक़ था, वही किया। वैसे मैं हंगामा करता तो सुनता कौन!
खैर, बात इमरजेंसी की। Imergency में मेरी शादी हुई थी, वह भी उसी रोज़ जिस दिन मैंने 21 पूरे किए सन 1976 में. चूंकि अकेला लड़का था इसलिए गाँव-ज्वार से लेकर पिता जी ने आधे शहर के न्योतने की योजना बनाई थी। मगर उन्हें, उनके एक कामरेड दोस्त ने समझाया- पंडत जी, इमरजेंसी में दस से ज्यादा बाराती नहीं जा सकते। इसलिए बमुश्किल 25 लोग ही गए, जिसमें एक दारोगा जी भी थे। सोचिये यदि इमरजेंसी नहीं लगती तो मेरे श्वशुर स्वर्गीय कन्हैयालाल दीक्षित, जो कानपुर नगर महापालिका (अब कानपुर नगर निगम) के एक प्राथमिक विद्यालय में मुख्याध्यापक थे, कहाँ से बारात ज़िमाते!
जो लोग इमरजेंसी के नुकसान गिनाते नहीं थकते, वे भूल जाते हैं कि बिना इमरजेंसी लगाए सरकारों ने ज्यादा अत्याचार किए हैं।
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