New Delhi, Jul 10 : 9 जुलाई को लोकसंवाद कार्यक्रम के बाद पत्रकारों से बातचीत करते हुए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अचानक कह दिया कि मैं राजनीति छोड़ूंगा तो पत्रकारिता करने लगूंगा. बातचीत सुनकर ऐसा लगा कि उन्होंने पत्रकारों की चुटकी लेते हुए यह कह दिया था. मगर मेरे जैसा पत्रकार गंभीरता से सोचने लगा कि अगर नीतीश जी राजनीति छोड़कर पत्रकारिता करने लगेंगे तो कैसी पत्रकारिता करेंगे?
वैसे तो नीतीश जो को पत्रकारिता का कोई अनुभव नहीं है. मगर राज्य के पत्रकार जानते हैं कि पत्रकारिता के प्रति उनकी गंभीर रुचि रहती है.
हालांकि सार्वजनिक रूप से नीतीश कुमार यही कहते हैं कि उन्हें अखबारों को दिये जाने वाले सरकारी विज्ञापनों से कोई लेना-देना नहीं है. यह विभाग के लोग तय करते हैं. मगर पटना के मीडिया सर्किल में यह खबर आम है कि भले ही जिलों के अखबार में आप कितनी भी निगेटिव खबरें छाप लें, राजधानी से छपने वाले अखबारों को हमेशा ऐसा स्वरूप दिया जाता है कि सुबह सुबह नीतीश जी का मूड ठीक बना रहे.
दरअसल बिहार जैसे उद्योग विहीन राज्य में राज्य सरकार से मिलने वाला सरकारी विज्ञापन ही अखबारों का सबसे बड़ा सहारा होता है. ऐसा आकलन है कि यहां से छपने वाले प्रमुख अखबारों के रेवेन्यू का 50-60 फीसदी हिस्सा सरकारी विज्ञापनों से हासिल होता है. ऐसे में सीएम को नाराज करने का रिस्क लेना अखबार की पूरी अर्थव्यवस्था पर कुठाराघात करने जैसा होता है. व्यावसायिक तरीके से छपने वाले अखबार यह रिस्क लेने में डरते हैं.
हालात तो ऐसे हैं कि पटना के मीडिया सर्किल में नीतीश जी को राज्य के सभी अखबारों का अघोषित संपादक कहा जाता है. स्थिति ऐसी हो गयी थी कि 2012 में जस्टिस काटजू ने कह दिया था कि बिहार में अघोषित इमरजेंसी जैसी स्थिति है. प्रेस परिषद के अध्यक्ष रहते हुए उन्होंने एक रिपोर्ट तैयार की थी जिसमें साफ कहा था कि राज्य की विज्ञापन नीति से यहां की पत्रकारिता की धार कुंद हो रही है. हालांकि इस जांच और रिपोर्ट का कोई फर्क नहीं पड़ा.
आज बिहार के अखबारों में कभी भी किसी अखबार का विज्ञापन दस-बीस दिनों के लिए बंद हो जाता है. अमूमन ऐसा किसी निगेटिव खबर के प्रकाशन के बाद होता है. हालांकि सरकार की तरफ से ऐसा कोई मैसेज नहीं दिया जाता. यह खुद अखबार वालों को समझना होता है. जब बात समझ आ जाती है तो अखबार वाले सरकार को खुश करने के लिए शराबबंदी की सफलता की कहानियां और बाल विवाह पर रोक के अभियान की सक्सेस स्टोरी छापना शुरू कर देते हैं. इस बीच सरकार के साथ ट्रैक-टू डिप्लोमेसी चलती रहती है.
वैसे तो यह बात पाठक नहीं समझते. मगर एक पत्रकार होने की वजह से यह बात सहजता से समझ आती है. जिस अखबार में सरकारी टेंडरों के विज्ञापन दिखने बंद हो जाते हैं, समझ आता है कि सरकार बहादुर की निगाह टेढ़ी हो गयी है. ऐसा साल भर में तकरीबन सभी अखबारों के साथ होता रहता है. जिस अखबार में ऐसा होता है उसके लिए मीडिया कर्मियों के लिए विज्ञापन विहीन पन्नों पर खबरें भरना भी एक चुनौती हो जाती है. ऐसे में पटना के अखबारों में सरकार विरोधी खबर छापना लगभग असंभव हो जाता है.
पत्रकारिता के लिए इस विषम परिस्थिति के बीच अगर खुद नीतीश जी पत्रकार बन जाते हैं तो दो बातें हो सकती हैं. या तो उनके मीडिया में आने से यहां की मीडिया पर से अंकुश खत्म हो जायेगा, क्योंकि नीतीश जी खुद पत्रकार रहेंगे तो अंकुश कौन लगायेगा. दूसरी बात यह हो सकती है कि अगर नया सीएम भी नीतीश जी की राह पर चलने लगा तो फिर नीतीश जी की स्थिति भी हम जैसे बिहारी पत्रकारों जैसी हो जायेगी.
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