New Delhi, Jul 13 : समलैंगिकता को लेकर हमारा सर्वोच्च न्यायालय और सरकार, दोनों ही अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। दोनों में से कोई भी इस मुद्दे पर अपनी दो-टूक राय जाहिर नहीं करना चाहता। समलैंगिकता मुद्दा बनी थी, अंग्रेज के लिए। क्योंकि 1857 के स्वाधीनता संग्राम ने लंदन के छक्के छुड़ा दिए थे। अंग्रेज अफसर पैसे और हुकूमत के लालच में भारत तो आ जाते थे लेकिन डर के मारे अपने बीवी-बच्चों को वहीं छोड़ आते थे। ऐसी स्थिति में अपनी वासना को वे अपने मातहत पुरुष कर्मचारियों के माध्यम से शांत करना ज्यादा सुरक्षित समझते थे।
स्त्रियों के साथ सहवास तो संतानोत्पत्ति के कारण पकड़ा जा सकता था लेकिन समलैंगिकता को प्रमाणित करना लगभग असंभव था। उसी का इलाज किया लाॅर्ड बेबिंगटन मैकाले ने।
यह धारा अभी तक भारत के गले में अटकी हुई है। यह धारा रहे या न रहे, इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता।
कानून का दखल तो तभी होगा जबकि पुलिस को पता चलेगा। जो स्वेच्छा से समलैंगिक संबंध करेंगे, वे पुलिस में क्यों जाएंगे ? पिछले डेढ़ सौ साल में, खास तौर से 70 साल में धारा 377 के कितने मामले सामने आए हैं ? इसमें शक नहीं कि समलैंगिक संबंध अप्राकृतिक हैं और सृष्टि-क्रम के विरुद्ध हैं। कोई भी समाज इसे प्रोत्साहित क्यों करना चाहेगा लेकिन इसे अपराध मानकर आजीवन कारावास दिया जाए, यह तो अक्ल का दीवाला ही है।
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