New Delhi, Aug 19 : मेरा हमेशा से ये मानना रहा है कि जब तक अम्बिका सोनी और ग़ुलाम नबी आज़ाद जैसी अमर- बेल कांग्रेस के शक्तिस्रोत १०, जनपथ के इर्द गिर्द लिपटी रहेंगी इस पार्टी का कल्याण नहीं हो सकता. ये दोनों, और दिल्ली के षड्यंत्रों के महारथी दो चार और ऐसे नेता हैं जो पार्टी पर १० जनपथ का शिकंजा ख़त्म नहीं होने देंगें और न ही क्षेत्रीय नेताओं की सीधी पहुँच दिल्ली तक होने देंगे. मै मोतीलाल वोहरा और अहमद पटेल को भी अमर-बेल की श्रेणी में गिनता हूँ, लेकिन उनकी अपनी अलग उपयोगिता है.
सोनी और आज़ाद तो चमत्कारी हैं. दोनों ही कई कई बार राज्य सभा की शोभा बढ़ चुके हैं. शायद ही कोई ऐसा क्षेत्रीय नेता होगा जो इनमे से किसी एक की उंगली पकडे बगैर कांग्रेसी राजप्रसाद में प्रवेश कर सके. जिसने भी इन्हे इग्नोर करने की कोशिश की, उसका पत्ता साफ़ होते देर नहीं लगी. उत्तराखंड के विजय बहुगुणा से पूछ लीजिये. अगर हरीश रावत और उनके गिरोह को अम्बिका सोनी का सपोर्ट न मिला होता तो क्या वो सरकार और पार्टी पर इतनी आसानी से कब्ज़ा कर पाते. नतीजा आपके सामने है. कई और राज्यों में भी कांग्रेस का बंटाधार इसी तरह के जड़ विहीन चापलूसों के कारण हुआ. लेकिन कांग्रेस की असली समस्या तो ये है कि मां- बच्चों को भी, खासकर माँ को,ये चापलूस बहुत भाते हैं.
अमर-बेल मंडली के चापलूसों की सफलता का राज जानना है तो सोनी और आज़ाद का इतिहास खंगाल लीजिये. ये दोनों ही यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष रहे. आज़ाद तो चलो जम्मू कश्मीर यूथ कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके थे लेकिन अम्बिका सोनी- वो तो सीधे मुख्यालय में टपकीं और एकदिन पता चला यूथ कांग्रेस की अध्यक्ष बन गयी हैं. दोनों तब से (१९८० से)राज्य सभा में हैं (आज़ाद शुरू में एक बार वशिम- महाराष्ट्र और फिर उधमपुर से लोकसभा में भी रहे, ज़ाहिर है महाराष्ट्र तो उनकी कर्मभूमि नहीं ही थी). वैसे तो आज़ाद कुछ समय के लिए कश्मीर के मुख्यमंत्री भी रहे लेकिन वहां भी वो पैराशूट से उतरे थे – पहले से विधायक नहीं थे. सोनी ने ग्रासरूट में कभी कोई काम किया हो याद नहीं पडत्ता.
कांग्रेस में ऐसे बहुत से नेता और भी हैं जिनकी जड़ें जनता में नहीं मुख्यालय में भीतर तक घुसी हैं. १० जनपथ और जड़ विहीन अमर- बेल मंडली के इस गठजोड़ ने पार्टी के संगठन को तो तबाह किया ही है, सोच को भी कुंठित कर दिया है. अब अनुच्छेद ३७० के प्रकरण को ही ले लीजिये. एक महीने पहले तक कांग्रेस को आप कुछ भी कह लेते, ये तो नहीं ही कह सकते थे कि ये पार्टी ३७० की समर्थक है, उसे जारी रखना चाहती थी. नेहरू जी ने तो संसद में कहा था कि ३७० धीरे धीरे स्वयं तिरोहित हो जायेगा और ऐसा होना भी चाहिए. इंदिरा गांधी ने इस काम को आगे बढ़ाते हुए कश्मीर से सदर ए रियासत और प्रधानमंत्री के पद हटाकर राज्यपाल और मुख्यमंत्री बना दिए, जैसा कि अन्य राज्यों में व्यवस्था है – ३७० पर सबसे बड़ी चोट तो यही थी. इसके बावजूद विडम्बना देखिये सारा देश ये मान रहा है कांग्रेस ३७० जारी रखना चाहती थी. वो कांग्रेस जिसकी सरकार ने सिक्किम को चीन के जबड़े से छीन कर भारत में मिलाया, जिसने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिए आज ३७० के सवाल पर कटघरे में खड़ी है. इसीलिये न कि पार्टी के नेतृत्व और उसके प्रवक्ताओं में वो नफासत और समझ नहीं है कि वो अपना पक्ष लोगों के सामने सही ढंग से रख सकें. जड़ों से कटी पार्टी का ये हश्र तो होना ही था.
(चर्चित वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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