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Opinion – आम लोग गलती कर सकते हैं, लेकिन न्यायपालिका को इसकी छूट नहीं दी जा सकती

वह तो भला हो कि पटना हाईकोर्ट का, जिसने पुलिस की धूर्तता पकड़ ली और पहले दो मामलों में जेल में बंद लोगों को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया।

New Delhi, Oct 11 : न्यायपालिका से लोगों को न्याय की उम्मीद रहती है।इसी वजह से न्यायपालिका का समाज में बहुत सम्मान है। इस सम्मान को कायम रखने में अदालती फैसलों का बड़ा योगदान रहा है। कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो आम तौर पर विद्वान न्यायाधीशों ने अपने फैसलों से न्यायपालिका का गौरव बढ़ाया है।

लेकिन हाल के दिनों में बिहार की कुछ निचली अदालतों ने अपने फैसलों से इस गरिमा को धूमिल किया है। बिना सोचे समझे और अपने विवेक का इस्तेमाल किये बगैर दिए गए निर्णय ने गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। न्याय प्रक्रिया को हास्यास्पद बनाया जा रहा है।
तीन उदाहरण प्रस्तुत हैं। बक्सर की एक अदालत ने पुलिस के कहने पर तीन लोगों को शराब पीने के आरोप में जेल भेज दिया। जेल गए लोगों ने रिहाई के लिए हाईकोर्ट की शरण ली। हाईकोर्ट के न्यायाधीश यह सुन कर दंग रह गए कि बिना मेडिकल जांच के पुलिस ने उन्हें शराब पीया हुआ मान कर गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के समय उनके पास से शराब भी बरामद नहीं हुई थी। इसके बावजूद पुलिस के कथन को सत्य मान कर बक्सर की अदालत ने तीन लोगों को शराबबंदी कानून में जेल भेज दिया। दरअसल एक पुराना वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें उन तीनों को शराब पीते दिखाया गया था। बस पुलिस ने बिना किसी छानबीन के उन्हें गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया। कोर्ट ने भी बिना किसी साक्ष्य के उन्हें जेल भेज दिया।

दूसरी घटना किशनगंज की है। वहां हत्या के एक मामले में बरी हो चुके व्यक्ति को फिर से उसी केस में गिरफ्तार कर कोर्ट में पेश किया गया, और कोर्ट ने आंख मूंद कर पुलिस की बात मान उन्हें जेल भेज दिया।
तीसरी और सबसे ताजा घटना मुजफ्फरपुर की है। मुजफ्फरपुर हाल के दिनों में कई कारणों से बदनाम होता रहा है। कुछ बुद्धिजीवियों ने हाल में देश में बढ़ते मॉब लिंचिंग की घटनाओं पर चिंता व्यक्त करते हुए प्रधानमंत्री को पत्र लिखा था। इस पत्र के खिलाफ कोर्ट में 27 अगस्त को परिवाद दायर किया गया था। 3 अक्टूबर को अदालत ने पुलिस को पत्र पर हस्ताक्षर करनेवाले 49 नामी गिरामी व्यक्तियों के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज कर कार्रवाई का निर्देश दिया। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप 100 से ज्यादा ख्यातिप्राप्त लोगों ने PM को पत्र लिख कर पूछा कि आपको खुला पत्र लिखना देशद्रोह कैसे हो गया ?

इस पत्र के बाद उच्च स्तर पर सरकारी तंत्र सक्रिय हुआ तो सारा मामला स्पष्ट हुआ। आनन-फानन में SSP मुजफ्फरपुर ने जांच कर केस को फर्जी करार दिया।अब परिवाद दायर करनेवाले के खिलाफ कार्रवाई की तैयारी हो रही है। परिवाद दायर करनेवाले एक वकील हैं। इस तरह के मामले कोर्ट में दायर कर सुर्खियां बटोरना उनका शौक है। और कोर्ट भी पूरे मनोयोग से उनका शौक पूरा करता है।
क्या अदालतों का यही काम है?क्या उन्हें पुलिस की बात पर आंख मूंद कर भरोसा करना चाहिए या सत्य की परख करनी चाहिए? क्या उन्हें पुलिस से साक्ष्य की मांग नही करनी चाहिए? तो फिर दूध का दूध और पानी का पानी कैसे होगा? स्पष्ट है की इन मामलों में निचली अदालतों ने बिना साक्ष्य के आदेश और निर्देश दिए।

वह तो भला हो कि पटना हाईकोर्ट का, जिसने पुलिस की धूर्तता पकड़ ली और पहले दो मामलों में जेल में बंद लोगों को तुरंत रिहा करने का आदेश दिया। पुलिस को फटकार। साथ ही निचली अदालत के खिलाफ प्रतिकूल टिप्पणी भी की। इससे अदालतों की मर्यादा की रक्षा हो सकी।
निचली अदालतों के ऐसे ग़ैर जिम्मेवाराना रवैये से पूरी न्यायिक प्रक्रिया पर लोगों को संदेह पैदा होता है। न्यायपालिका का सम्मान कम होता है। आवश्यकता है सचेत और सजग होकर साक्ष्यों के आधार पर निर्णय देने की।
हालांकि मोटे तौर पर भारतीय न्यायपालिका ने शानदार काम किया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ या सामाजिक बदलाव में उसने उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। लेकिन कुछेक गलतियां इन उपलब्धियों को धूमिल कर देती हैं। आम लोग गलती कर सकते हैं, लेकिन न्यायपालिका को इसकी छूट नहीं दी जा सकती। पूरे देश को उससे नीर क्षीर विवेक की उम्मीद है।

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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