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65 मामलों में आरोपी होने के बावजूद विकास दुबे जमानत पर कैसे था?

फिर सुप्रीम कोर्ट यह सवाल किससे पूछ रहा है कि 65 मामलों का आरोपी बेल पर कैसे था? इसका जवाब कौन देगा? इसका जवाब तो खुद न्यायपालिका को ही देना है।

New Delhi, Jul 22 : सुप्रीम कोर्ट ने बिल्कुल सही सवाल पूछा है कि 65 मामलों में आरोपी होने के बावजूद विकास दुबे जमानत पर कैसे था? कोर्ट को यह स्वीकार करना पड़ा कि यह सिस्टम की विफलता है।
सवाल तो जायज है। यही सवाल तो देश का हर नागरिक पूछ रहा है। और बहुत पहले से पूछ रहा है। अलबत्ता सुप्रीम कोर्ट देर से जगा है। सिस्टम की विफलता कोई छिपी हुई बात नहीं है। आश्चर्य है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय को इसकी जानकारी तब हुई जब विकास दुबे एनकाउंटर में मारा गया! अपराधी को जेल, बेल या दंड देना और रिहा करना, यह तो न्यायपालिका का ही कार्य है ! फिर सुप्रीम कोर्ट यह सवाल किससे पूछ रहा है कि 65 मामलों का आरोपी बेल पर कैसे था? इसका जवाब कौन देगा? इसका जवाब तो खुद न्यायपालिका को ही देना है।

अभी कुछ ही दिन पहले बिहार के अररिया में एक न्यायिक दंडाधिकारी ने रेप विक्टिम को ही जेल भेज दिया। वह अपना बयान दर्ज कराने कोर्ट गई थी। रेप के आरोपी छुट्टा घूम रहे हैं और पीड़िता को जेल मिलती है? इसका जवाब कौन देगा? शुक्र है कि देश के कुछ नामी-गिरामी वकीलों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पटना हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखा तब एक हफ्ते बाद उस लड़की को बांड भरवाकर छोड़ा गया। अगर सामाजिक संगठन इसमें पहल नहीं करते तो पीड़िता तो जेल में सड़ती रहती। हर सुनवाई पर उसे अगली तारीख मिल जाती।

जब कोर्ट इस तरीके से काम करेंगे, केसों को जानबूझ के लंबा खींचा जायेगा, लंबी-लंबी तारीखें पड़ती रहेंगी तो विकास दुबे जैसे अपराधी फलते-फूलते रहेंगे। समय पर चार्जसीट दाखिल नहीं करने, गवाह प्रस्तुत नहीं करने के अपराध में क्या आज तक किसी को सजा मिली है? केस को अनावश्यक लंबा खींचने और समय पर फैसला नहीं देने के लिए कितने न्यायिक अधिकारियों पर कार्रवाई हुई है?
पुलिस एनकाउंटर में जब विकास दुबे मारा गया तब सुप्रीम कोर्ट को याद आ रहा है कि 65 केसों के बावजूद उसे जमानत कैसे मिली हुई थी? अगर वह मारा नहीं जाता तो अपनी आपराधिक गतिविधियां बदस्तूर जारी रखता, कोर्ट अनभिज्ञ बना रहता?

सुप्रीम कोर्ट ने ठीक ही कहा कि यह सिस्टम की विफलता है। निचली अदालतों के कामकाज की ऊपरी अदालत द्वारा मोनिटरिंग की व्यवस्था है। अगर यह मोनिटरिंग ठीक तरीके से होती रहती तो बहुत पहले ऊपरी अदालत को इसकी जानकारी मिल गई होती 65 मामलों के आरोपी कुख्यात अपराधी को जमानत दे दी गई है।
अदालतों में कामकाज किस तरह से हो रहा है, इसकी जानकारी आम आदमी को भी है। यह अकेले एक विकास दुबे का मामला नहीं है। देश मे हज़ारों विकास दुबे हैं जो जमानत पर अपराध कर रहे हैं या अपनी समानांतर सत्ता चला रहे हैं। अनेक पुलिस की नजरों में फरार हैं, लेकिन खुले आम अपराध करते नजर आते हैं। अदालत को अगर इसकी जानकारी नहीं है तो यह सिस्टम की विफलता को ही इंगित करता है।

देर से ही सही लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने सिस्टम की विफलता पर सवाल पूछा है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। कोर्ट को अपराधी गिरोहों पर नकेल कसने के लिए सरकार को कड़े कानून बनाने का निर्देश देना चाहिए। जो आदतन अपराधी, बड़े गैंगस्टर हैं, उनके लिए एकांत में कालापानी जैसा जेल बनाकर आजीवन वहीं रखा जाना चाहिए। उनसे किसी को मिलने की इजाजत नहीं होनी चाहिए। जो समाज के लिए खतरा हैं, उन्हें समाज से बाहर किया जाना जरूरी है।
कोर्ट में मुकदमों का फैसला एक तय समय के अंदर होना चाहिए। झूठी गवाही देने और झूठे केस करनेवालों को दंडित किया जाना चाहिए। त्वरित फैसले से अपराध पर नकेल कसने में बहुत मदद मिलेगी। क्या सुप्रीम कोर्ट ऐसे कानून के लिए तैयार है?

(वरिष्ठ पत्रकार प्रवीण बागी के फेसबुक वॉल से साभार, ये लेखक के निजी विचार हैं)
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